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________________ २९८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-८, १४. एदेण कमेण बहुसु द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु तदो एक्कसराहेण मोहणीयविदिबंधो कम्मचउक्कट्ठिदिबंधादो असंखेज्जगुणहीणो जादो। तावे अप्पाबहुगं-- णामा-गोदाणं द्विदिबंधो थोवो । मोहणीयस्स द्विदिवंधो असंखेज्जगुणो। चउण्हं कम्माणं विदिबंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो । जाव मोहणीयस्स विदिबंधो उवरि आसी ताव असंखेज्जगुणो चैव आसी, असंखेज्जगुणादों चेव असंखेज्जगुणहीणो जादो । एदेण अप्पाबहुगविहिणा बहुसु हिदिबंधसहस्सेसु गदेसु णामा-गोदट्ठिदिबंधादो एक्कसराहेण मोहणीयट्ठिदिबंधो असंखेज्जगुणहीणो जादा । ताधे अप्पाबहुगं- मोहणीयविदिबंधो थोवो । णामा-गोदाणं हिदिबंधो असंखेज्जगुणो' । चउण्हं कम्माणं विदिबंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो। एदेण कमेण बहुसु द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु एक्कसराहेण वेदणीयट्ठिदिबंधादो णाणावरणदंसणावरण-अंतराइयाणं द्विदिबंधो संखेज्जगुणहीणो विसेसहीणो वा अहोदूण असंखेज्जगुणहीणो चेव जादों । तावे अप्पाबहुगं- मोहणीयस्स ट्ठिदिबंधो थोत्रो । णामा-गोदाणं स्थितिबन्धसहस्रोंके वीत जानेपर तब एक साथ मोहनीयका स्थितिवन्ध उपर्युक्त चार कर्मोंके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा हीन हो जाता है। तव अल्पवहुत्व ऐसा होता है-- नाम-गोत्र प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध स्तोक है। मोहनीयका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । चार कर्मोंका स्थितिबन्ध तुल्य असंख्यातगुणा है। जब तक मोहनीयका स्थितिवन्ध ऊपर अर्थात् चार कर्मोंसे अधिक था तब तक चार कर्मोंके स्थितिवन्धसे असंख्यातगुणा ही था। परन्तु अब वह कर्मचतुष्टयसे असंख्यातगुणा अधिक न होकर असंख्यातगुणा हीन हुआ है। इस अल्पबहुत्वविधिसे बहुत स्थितिबन्धसहस्रोंके वीत जानेपर नामगोत्र प्रकृतियोंके स्थितिबन्धसे एक साथ मोहनीयका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा हीन हो जाता है। उस समय अल्पवहुत्व ऐसा होता है-मोहनीयका स्थितिबन्ध स्तोक है। नाम-गोत्र प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। चार कर्मोंका स्थितिबन्ध तुल्य असंख्यातगुणा है। इस क्रमसे बहुत स्थितिबन्धसहस्रोंके बीत जानेपर एक साथ वेदनीयके स्थितिबन्धसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इनका स्थितिवन्ध संख्यातगुणा हीन अथवा विशेष हीन न होकर असंख्यातगुणा हीन ही हो जाता है। उस समय अल्पबहुत्व इस प्रकार है-मोहनीयका स्थितिवन्ध स्तोक है। नाम-गोत्र प्रकृतियोंका १ मोहगपल्लासंखढिदिवन्धसहस्सगेसु तीदेसु । मोहो तीसियट्ठा असंखगुणहीणयं होदि॥ लब्धि. २३३. २ प्रतिषु ' आसंखेज्जगुणादो' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' -हिदिणा' इति पाठः। ४ तेत्तियमेत्ते बंधे समतोदे वीसियाण हेट्ठावि । एक सराहो मोहो असंखगुणहीणयं होदि । लब्धि. २३४. ५ अ-प्रतौ ' असंखेज्जगुणहीणो जादो' इति पाठः। ६ तेत्तियमेते बंधे समतीदे वेयणीयहेहादु। तीसियघादितियाओ असंखगुणहीणया होति ॥ २१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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