SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छक्खंडागमे जीवड्डाणं [ १, ९-८, १४. २९४ ] भवियणामाणं' बंधवोच्छेदो, पंच- सत्तभागे गंतूगेत्ति उत्तं होदि । अपुव्त्रकरणद्धाए जहि णिद्दा- पयलाओ वोच्छिण्णाओ सो कालो थोवो । परभवियणामाणं वोच्छिण्णकालो पंचगुणो । अपुच्चकरणद्धा वे सत्तभागाहिया । तदो अपुव्यकरणद्धाए चरिमसमए हिदिखंडयमणुभागखंडयं विदिबंधो च समगं गिट्टिदा । तम्हि चेव समए हस्स-रदि-भयदुर्गुछाणं बंधो वोच्छिष्णो । हरस-रदि- अरदि-सोग भय-दुगुंछाछकम्माणमुदओ च तत्थेव वोच्छिष्णो । तदो से काले पढमसमयअणियडी जादो । पढमसमयअणियट्टिस्स ट्ठिदिखंडओ पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । अपुच्चो दिबंधो पलिदो मस्त संखेज्जदिभागेण होणो । अणुभागखंडगो सेसस्स अनंता भागा । असंखेज्जगुणार सेडीए सेसे सेसे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु आदि चार, प्रशस्त विहायोगति, सादि चार, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थकर । इनमें से आहारकशरीर, आहारक आंगोपांग और तीर्थकर, ये तीन प्रकृतियां जब नहीं बंधती तब शेष सत्ताईस ही बंधती हैं। अपूर्वकरण के सात भागों में से पांच भागोंके वीत जानेपर उक्त नामकमकी बन्धव्युच्छित्ति होती है यह इसका अभिप्राय है । जिस अपूर्वकरणकालमें निद्रा प्रचला प्रकृतियां बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं वह काल स्तोक है। इससे परभविक नामकर्मोकी व्युच्छित्तिका काल पांचगुणा है । इससे अपूर्वकरणकाल दो घंटे सात भाग ( 3 ) अधिक है । पश्चात् अपूर्वकरणकालके अन्तिम समय में स्थितिकांडक, अनुभागकांडक और स्थितिबन्ध, ये एक साथ समाप्त होते हैं । उसी समय में ही हास्य, रति, भय और जुगुप्सा, इन चार कर्मोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । और वहां ही हास्य, रति, अरति, शोक, भय, और जुगुप्सा, इन छह कर्मोंकी उदयभ्युच्छित्ति भी होती है । इसके पश्चात् अनन्तर समय में प्रथम समय अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती हुआ । अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है । अपूर्व अर्थात् नवीन स्थितिबन्ध पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन होता है । अनुभाग कांडक शेषके अनन्त वहुभागमात्र है । असंख्यातगुणी श्रेणीरूप से शेष शेपमें १ तदो णिद्दापयलाबंधविच्छेदविसयादो उवरि पुव्युरोणेव क्रमेण हिंदि - अणुभागखंडय सहसाणि अणुपालेमाणस्स हे ट्टिमद्वाणादो संखेज्जगुणमेत्ते अंतोमुहुत्ते गदे तावे परमत्रसंबंधेण बच्झमाणाणं णामपडणं देवादि • पंचिदियजादि वे उच्वियाहार-तेजा- कश्यसरीर-समचउरससंठाण - वेउध्वियाहारसरीरंगविंग देवग दिपाओग्गाणुपुत्रिषण्ण-गंध-रस- फास-अगुरुच उक्क - पसत्थविहायगदि तसादिचउक्क थिर-सुभ-सुभग सुस्सरादेज्ज- णिमिण-तित्थयरमण्णिदाणमुक्कस्सेण तीससंखावहारियाणं जहण्णदो सत्तावीस संखाविसेसिदाणं बंधवोच्छेदो जादो । जयध. अ प १००९. दो एसिं परमवियसण्णा ? परभवसंबंधिदेवगदीए सह बंधपाओगचादो जयध- अ. प. २०७४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy