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________________ [ २९५ १, ९-८, ३४.] चूलियाए सम्मन्नप्पत्तीए चारित्तपडिवजणविहाण गुणसेढीणिक्खेवो । तिस्से चेव अणियट्टीअद्धाए पढमसमए अप्पसत्थउवसामणाकरणणिधत्तीकरण-णिकांचणाकरणाणि वोच्छिण्णाणि । एदेसिं करणाणं लक्खणगाहा 'उदए संकम-उदए चदुसु वि दाएं कमेण णो सक्क । उवसंतं च णिधत्तं णिकाचिदं चावि जं कम्मं ।। १८ ॥ आयुगवाणं कम्माणं विदिसंतकम्ममतोकोडाकोडीए, द्विदिबंधो अंतोकोडीए' सदसहस्सपुधत्तं । तदो डिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु अणियट्टीअद्धाए संखेज्जा भागा गदा । तदो अणियट्टीअद्वाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु असण्णिट्ठिदिबंधेण समगो ट्ठिदिबंधों । तदो ठिदिबंधपुधत्ते गदे चउरिदियठिदिबंधसमगो ठिदिबंधो जादो । तदो ठिदिबंधपुधत्ते गदे तीइंदियठिदिबंधेण समगो ठिदिवंबंधो । तदो डिदिबंधपुधत्ते गदे वीइंदिय गुणश्रेणीका निक्षेप है अर्थात् गलितशेष गुणश्रेणी होती है। उसी अनिवृत्तिकरणकालके प्रथम समयमें अप्रशस्त प्रकृतियोंका उपशामनाकरण, निधत्तिकरण और निकाचनाकरण, ये तीन करण व्युच्छिन्न होते हैं। इन करणोंके लक्षणोंको सूचित करनेवाली गाथा यह है जो कर्म उदयमें न दिया जा सके वह उपशान्त, जो संक्रमण व उदय दोनोंमें ही न दिया जा सके वह निधत्त, तथा जो उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण व उदय, चारोंमें ही न दिया जा सके वह निकाचितकरण है ॥ १८॥ ___ आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोंका स्थितिसत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण और स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ीके भीतर लक्षपृथक्त्वमात्र होता है। पश्चात् स्थितिकांडकसहस्रोंके व्यतीत होनेपर अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग चले जाते हैं। तब अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात वहुभागोंके वीत जानेपर असंज्ञीके स्थितिबन्धके समान स्थितिवन्ध होता है । तदनन्तर स्थितिबन्धपृथक्त्वके वीत जानेपर चतुरिन्द्रियके स्थितिबन्धके सदृश स्थितिवन्ध होता है। तत्पश्चात् स्थितिबन्धपृथक्त्वके वीतनेपर त्रीन्द्रियके स्थितिवन्धके सदृश स्थितिवन्ध होता है। पुनः स्थितिबन्धपृथक्त्वके व्यतीत १ प्रति णिवत्ती-' इति पाठः। २ अणियट्टिस्स य पढमे अण्णहिदिखंड पहुदिमारवई । उवसामणा णिधत्ती णिकाचणा तत्थ वोच्छिण्णा ॥ लब्धि. २२६. ४ अंतोकोडाकोडी अंतोकोडी य सत्त बंधं च । सत्तण्हं पयडीणं अणियट्टीकरणपटमाम्हि ॥ लब्धि. २२७. ५ ठिदिबंधसहस्सगदे संखेज्जा बादरे गदा भागा। तत्थ असण्णिस्स ठिदीसरिस हिदिबंधणं होदि॥ लब्धि. २२८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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