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________________ २९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१,९-८, १४. घड्ढदि अवट्टायदि वा। तदो उवसंतदसणमोहणीओ असाद-अरदि-सोग-अजसकित्तिआदिपयडीणं बंधपरावत्तिसहस्सं कादृण कसायाणमुवसामणट्ठमधापवत्तकरणपरिणामेहि परिणमेदि । एत्थ पुव्वं व णत्थि द्विदिघादो अणुभागघादो गुणसंकमो च । संजमगुणसेडिं मुच्चा अधापवत्तपरिणामणिबंधणगुणसेडी वि णस्थि । णवरि विसोहीए अणंतगुणाए पडिसमयं वड्ढदि । अपुवकरणपढमसमए उवसंतईसणमोहणीओ हिदिखंडयमागाएंतो जहण्णेण पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमुक्कस्सेण सागरोवमपुधत्तमेत्तहिदिखंडयमागाएदि । खीणदसणमोहणीयस्स पुण अपुवकरणपढमट्ठिदिखंडओ जहण्णओ उक्कस्सओ वि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । हिदिबंधेण जमोसरदि जहण्णेणुक्कस्सेण च सो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । असुहाणं कम्माणं अणंता भागा अणुभागखंडयपमाणं । अपुव्वकरणपढमसमए हिदिसंतकम्मं द्विदिबंधो च अंतोकोडाकोडीए । गुणसेडी पुण अपुषकरणद्धादो अणियट्टीकरणद्धादो च विसेसाहिया । अपुवकरणपढमसमए गुणसेढी संक्लेश परिणामोंकी हानि होनेसे विशुद्धिसे बढ़ता है, अथवा अवस्थित रहता है। इसके पश्चात् वही द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि असाता, अरति, शोक व अयश-कीर्ति आदि प्रकृतियोंकी सहस्रों बार बन्धपरावृत्तियोंको करके, अर्थात् अप्रमत्तसे प्रमत्त और प्रमत्तसे अप्रमत्त गुणस्थानमें जाकर, कषायोंके उपशमानेके लिये अधःप्रवृत्तकरण परिणामोसे परिणमता है। यहां पूर्वके समान स्थितिघात, अनुभागघत और गुणसंक्रमण नहीं है। संयमगुणश्रेणीको छोड़कर अधःप्रवृत्तपरिणामनिबन्धन गुणश्रेणी भी नहीं है। विशेष यह है कि अनन्तगुणी विशुद्धिसे प्रतिसमय बढ़ता रहता है। ___ अपूर्वकरणके प्रथम समयमें उक्त द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीव स्थितिकांडकको प्रारम्भ करता हुआ जघन्यसे पल्योपमके संख्यातवें भाग और उत्कर्षसे सागरोपमपृथक्त्वमात्र स्थितिकांडकको ग्रहण करता है । परन्तु क्षीणदर्शनमोहनीय अर्थात् क्षायिक सम्यग्दृष्टिके अपूर्वकरणका प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिकांडक जघन्य व उत्कृष्ट भी पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र रहता है । स्थितिबन्धसे जो अपसरण करता है, वह जघन्य व उत्कर्षसे पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र होता है। अशुभ कर्मोंके अनुभागकांडकका प्रमाण अनन्त बहुभाग होता है । अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिसत्त्व और स्थितिबन्ध अन्ताकोड़ाकोड़ीमात्र है। किन्तु गुणश्रेणी अपूर्वकरणकालसे और अनिवृत्तिकरणकालसे विशेष अधिक है। १ तेण परं हायदि वा वदि तव्वडिदो विसुाहिं । उवसंतदंसणतियो होदि पमत्तापमतेमु ॥ एवं पमत्तमियर परावत्तिसहसयं तु कादूण । इगिवीसमोहणीयं उवसमदि ण अण्णपयडीसु । लब्धि. २१५-११७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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