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१, ९-८ ११.] चूलियाए सम्मत्तुष्पत्तीए चारित्तपडिवजणविहाणं [२९१ मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तपदेसग्गं सम्मत्तपढमहिदीसु संकामेदि । जाव अंतरदुचरिमफाली पददि ताव इमो कमा होदि । पुणो चरिमफालीए पदमाणाए मिच्छत्त-सम्मामिच्छताणमंतरट्ठिदिपदेसग्गं सव्यं सम्मत्तपढमट्ठिदीए संछुहदि । एवं सम्मत्त-अंतरट्ठिदिपदेसं पि अप्पणो पढमद्विदीए चेव देदि । विदियट्ठिदिपदेसग्गं पि ताव पदमहिदिमेदि जाव आवलिय-पडिआवलियाओ पढमट्टिदीए सेसाओ त्ति । सम्मत्तस्स पढमहिदीए झीणाए मिच्छत्तपदेसग्गं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु गुणसंकमेण (ण) संकमदि । इमस्स विज्झादसंकमो चेव । पढमदाए सम्मत्तमुप्पादयमाणस्स जो गुणसंकमेण पूरणकालो तदो संखेज्जगुणं कालं इमो उवसंतदंसणमोहणीओ विसोहीए वड्वदि । तेण परं हायदि
समान स्थितियों में स्थित मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके प्रदेशाग्रको सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथमस्थितियों में संक्रमण कराता है। जब तक अन्तरकरणकालकी द्विचरम फालि प्राप्त होती है तब तक यही क्रम रहता है। पुनः अन्तिम फालिके प्राप्त होनेपर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके सव अन्तरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्रको सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें स्थापित करता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशको भी अपनी प्रथमस्थितिमें ही देता है। द्वितीयस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्र भी तब तक प्रथम स्थितिको प्राप्त होता है, जब तक कि प्रथम स्थितिमें आवली और प्रत्यावली शेष रहती हैं । सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिके क्षीण होनेपर मिथ्यात्वका प्रदेशाग्र गुणसंक्रमणसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंमें संक्रमण नहीं करता है । इसके केवल विध्यातसंक्रमण होता है। प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका जो गुणसंक्रमले पूरणकाल है उससे संख्यातगुणे काल तक यह उपशान्तदर्शनमोहनीय जीव अर्थात् द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि (प्रतिसमय अनन्तगुणी) विशुद्धिसे बढ़ता है। इसके पश्चात् अर्थात् एकान्त वृद्धिकालके पीछे वह द्वितीयोपशमसभ्यग्दृष्टि संक्लेश परिणामोंके वश विशुद्धिसे हीन होता है,
१ सम्मतपयडिपढमहिदी सरिसाण मिच्छनिरसाणं । टिदिदवं सम्मत य सरिसणिसे यम्हि संकमदि। लब्धि. २११.
२ जावंतरस्स दुचरिमफालि पावे इमो कमो ताव । चरिमतिदसणदव्वं हेदि सम्मस्स पदमम्हि॥ लब्धि. २१२.
विदियट्टिदिस्स दव्वं पटम हिदिमेदि जाव आवलिया। पडिआवलिया चिढदि सम्मत्तादिमठिदी ताव ॥ लब्धि. २१३.
४ सम्मादिठिदि झीणे मिरदव्वादु सम्मसंमिस्से । गुणसंकमो ण णि पमा विझादो संकमो होदि ॥ लब्धि. २१४.
५ सम्मत्तु पत्ती ! गुणसंकमपूरणरस कालादो । संखेज्जगुणं कालं विसोहिवडीहिं वदि हु ॥ लब्धि. २१५.
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