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१, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए चारित्त पडिवाजणविहाणं [२८९ सामेदि । जाणि अणंताणुबंधिविसंजोयणाए तिण्णि वि करणाणि परूविदाणि ताणि सव्वाणि इमस्स वि परूवेदव्वाणि । कधं ताणि चेव तिण्णि करणाणि पुध पुध कज्जुप्पायणाणि ? ण एस दोसो, लक्खणसमाणत्तेण एयत्तमावण्णाणं भिण्णकम्मविरोहित्तणेण भेदमुवगयाणं जीवपरिणामाणं पुध पुध कज्जुप्पायणे विरोहाभावा । तत्थ द्विदिघादो अणुभागघादो गुणसेडी च अस्थि । जधा अणंताणुबंधीविसंजोयणाए गलिदसेसा अपुव्वकरणद्धादो अणियट्टीकरणद्धादो च विसेसाहिया गुणसेडी कदा तधा एत्थ वि करेदि । हिदि-अणुभागकंडयगहणक्कमो तेसिमुक्कीरणद्धाणं द्विदिबंधगद्धाणं कमो च दंसणमोहणीयक्खवणाए' जधा उत्तो तधा वत्तव्यो । णवरि एत्थ गुणसंकमो णत्थि, विज्झादो चेव, अप्पसत्थाणं अधापवत्तो वा । अपुव्वकरणस्स पढमसमयट्ठिदिसंतकम्मादो तस्सेव चरिमसमयट्ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणहीणं । पढमसमयअणियट्टीकरणस्स द्विदिसंतकम्मादो चरिमसमय
कर पश्चात् दर्शनमोहनीयको उपशमाता है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनामें जिन तीनों करणोंका प्ररूपण किया जा चुका है वे सब इसके भी कहे जाने चाहिये।
शंका-वे ही तीन करण पृथक् पृथक् कार्योंके उत्पादक कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, लक्षणकी समानतासे एकत्वको प्राप्त, परन्तु भिन्न काँके विरोधी होनेसे भेदको भी प्राप्त हुए जीवपरिणामोंके पृथक् पृथक् कार्यके उत्पादनमें कोई विरोध नहीं है। वहां स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणी भी है। जिस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनामें गलितावशेष गुणश्रेणी अपूर्वकरणकाल और अनिवृत्तिकरणकालसे विशेष अधिक की थी, उसी प्रकार यहांपर भी करता है। काण्डकोंका ग्रहणक्रम तथा उनके उत्कीरणकालों और स्थितिबन्धकालोका क्रम जैसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें कहा गया है, वैसे यहां भी कहना चाहिये। विशेषता यह है कि यहां गुणसंक्रमण नहीं है; केवल विध्यातसंक्रमण, अथवा अप्रशस्त प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसंक्रमण है। अपूर्वकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिसत्त्वसे उसका ही अन्तिमसमयसम्बन्धी स्थितिसत्त्व संख्याताणा हीन है। प्रथमसमयसम्बन्धी अनिवृत्तिकरणके स्थितिसत्त्वसे अन्तिमसमयसम्बन्धी स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा हीन
१ उवसमचरिया हमहो वेदगसम्मो अणं विजयित्ता। अंतोमहत्तकालं अधापवणे पमनो य॥ तत्तो तियरणविहिणा दंसणमोहं समं खु उवसमदि । सम्मनुप्पत्ति वा अण्णं च गुणसे टिकरणविही । लब्धि.२०३-२०४.
२ अ-आप्रत्योः ' तहिदि', कप्रती ' तं विदि ' इति पाठः। ३ अ-कप्रत्योः ' -क्खवणा व ', आप्रतौ ' -क्खवणा' इति पाठः।
४दसणमोहवसमणं तक्खवणं वा हु होदि ण परितु । गण कमो ण विज्जदि विन्झद वाधापवतं च ॥ लाधि. २०५.
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