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________________ २८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १४. उक्कस्सयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि अंतरिय तत्तियमेत्ताणि चेव ह्राणाणि णिरंतरमुवरि गंतूणुप्पत्तीदो । सुहुमसांपगइयसुद्धिसंजदस्स अणियट्टीगुणट्टाणाभिमुहस्स जहण्णयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । कुदो ? बहूणि छट्ठाणाणि अंतरिय समुभवादो । तस्सेव उक्कसयं संजमट्ठाणमणंतगुणं, अणंतगुणविसोहीए समुप्पत्तीदो । वीदरागस्स अजहण्णमणुक्कस्सं चरित्तलद्धिट्ठाणमणंतगुणं । संपधि' ओवसमियचारित्तप्पडिवज्जणविहाणं वुच्चदें । तं जधा- जो वेदगसम्माइट्ठी जीवो सो ताव पुवमेव अणंताणुबंधी विसंजोएदि । तस्स जाणि करणाणि ताणि परवेदव्वाणि । तं जधा- अधापवत्तकरणं अपुव्यकरणं अणियट्टीकरणं च । अधापवत्तकरणे णत्थि द्विदिघादो अणुभागघादो गुणसेडी वा। अपुवकरणे द्विदिघादो अणुभागघादो गुणसेडी गुणसंकमो च अस्थि । अणियट्टीकरणे वि एदाणि चेव, अंतरकरणं णत्थि । जो अणंताणुबंधी विसंजोएदि तस्स एसा ताव समासपरूवणा । तदो अणताणुबंधी विसंजोइय अंतोमुहुत्तं अधापवत्तो होदृण पुणो पमत्तगुणं पडिवज्जिय असाद-अरदि-सोग-अजसगितिआदीणि कम्माणि अंतोमुहुत्तं बंधिय तदो दंसणमोहणीयमुव अनन्तगुणा है, क्योंकि, असंख्यात लोकमात्र स्थानोंका अन्तर करके और उतनेमात्र स्थान निरन्तर ऊपर जाकर उसकी उत्पत्ति होती है। अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अभिमुख हुए सूक्ष्मसाम्परायिकवशुद्धिसंयतका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि, बहुतसे छह स्थानोंका अन्तर करके वह उत्पन्न होता है। उसीका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति अनन्तगुणी विशुद्धिसे है। वीतरागका अजघन्यानुत्कृष्ट चरित्रलब्धिस्थान अनन्तगुणा है । अब औपशमिक चारित्रकी प्राप्तिके विधानको कहते हैं। वह इस प्रकार हैजो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव है वह पूर्वमें ही अनन्तानुवन्धिचतुष्टयका विसंयोजन करता है। उसके जो करण होते हैं उनका प्ररूपण करते हैं। वह इस प्रकार है--अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। अधःप्रवृत्तकरणमें स्थितिघात, अनुभागघात अथवा गुणश्रेणी नहीं है। किन्तु अपूर्वकरणमें स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रम हैं। ये ही कार्य अनिवृत्तिकरणमें भी हैं, अन्तरकरण नहीं है। जो अनन्तानुबन्धिचतुष्टयका विसंयोजन करता है उसकी यह संक्षेपसे प्ररूपणा है। तत्पश्चात् अनन्तानुबन्धिचतुष्टयका विसंयोजन करके अन्तर्मुहूर्तकाल तक अधःप्रवृत्त अर्थात् स्वस्थान अप्रमत्त होकर पुनः प्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त कर असाता, अरति, शोक और अयशकीर्ति आदिक (प्रमत्त गुणस्थानमें बंधने योग्य तिरेसठ ) कर्मप्रकृतियोंको अन्तर्मुहूर्त तक बांध बानुबन्धिप्रमत्ताने या ........................ १ कप्रतौ संपधिय' इति पाठः । २ आ-कप्रत्योः 'उच्चदे' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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