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________________ २८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१,९-८, १४. अपुव्वकरणाभावादो पत्थि द्विदिघादो अणुभागघादो वा । असंजमं गंतूण वड्डाविदठिदिअणुभागसंतकम्मस्स दो वि घादा अत्थि, दोहि करणेहि विणा तस्स संजमग्गहणाभावा। • पढमसमयअपुव्वकरणमादि कादूण जाव अधापवत्तसंजदो एदम्हि काले इमेसिं पदाणमप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। तं जहा- सव्वत्थोवा एयंताणुवड्डीए चरिमाणुभागखंडयउक्कीरणद्धा । अपुव्वकरणस्स पढमाणुभागखंडयउक्कीरणद्धा विसेसाहिया । एअंताणुवड्डीए चरिमट्ठिदिखंडयउक्कीरणद्धा हिदिबंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ । पढमसमयअपुव्वकरणस्स विदिखंडयउक्कीरणद्धा द्विदिबंधगद्धा च विसेसाहियाओ। पढमसमयसंजदमादि कादूण जम्हि काले एअंतवड्डीए बड्डदि सो कालो संखेज्जगुणो । अपुव्वकरणद्धा संखेज्जगुणा । जहणिया संजमद्धा संखेज्जगुणा । गुणसेडीणिक्खेवो संखेज्जगुणो। एअंताणुबड्डीए चरिमट्ठिदिबंधस्स आबाधा संखेज्जगुणा । पढमसमयअपुव्यकरणट्ठिदिबंधस्स आवाधा संखेज्जगुणा । एअंताणुवड्डीए चरिमविदिखंडओ असंखेज्जगुणो। अपुव्यकरणस्स पढमसंमए जहण्णओ द्विदिखंडओ संखेज्जगुणो । न तो स्थितिघात होता है और न अनुभागघात होता है। किन्तु असंयमको जाकर स्थितिसत्त्व और अनुभागसत्त्वको बढ़ानेवाले जीवके दोनों ही घात होते हैं, क्योंकि, दोनों करणोंके विना उसके संयमका ग्रहण नहीं हो सकता है। प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरणसंयतको आदि करके जब तक वह अधःप्रवृत्तसंयत अर्थात् स्वस्थानसंयत रहता है, तब तक इस मध्यवर्ती कालमें इन पदोंका अल्पबहुत्व कहेंगे । वह इस प्रकार है-एकान्तानुवृद्धिका अन्तिम अनुभागकांडकसम्बन्धी उत्कारणकाल सबसे कम है। उससे अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल विशेष अधिक है। उससे एकान्तानुवृद्धिका अन्तिम स्थितिकांडकसम्बन्धी उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धकाल, ये दोनों परस्पर तुल्य संख्यात गणित हैं। उससे प्रथमसमयसम्बन्धी अपूर्वकरणके स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और स्थितिवन्धका काल, ये दोनों विशेष अधिक हैं। उससे प्रथमसमयवर्ती संयतको आदि करके जिस काल में एकान्तवृद्धिसे बढ़ता है वह काल संख्यातगुणित है। उससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणित है। उससे जघन्य संयमकाल संख्यातगुणित है। उससे गुणश्रेणीनिक्षेप संख्यातगुणित है। उससे एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम स्थितिबन्धकी आबाधा संख्यातगुणित है। उससे प्रथमसमयसम्बन्धी अपूर्वकरणके स्थितिबन्धकी आबाधा संख्यातगुणित है। उससे एकान्तानुवद्धिका अन्तिम स्थितिकांडक असंख्यातगणित है। उससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जघन्य स्थितिकांडक संख्यातगुणित है। उससे पल्योपम संख्यातगुणित है। उससे ......................................... १ एतो उरि विरदे देसो वा होदि अप्प बहुगो त्ति। देसो त्ति य तहाणे विरदो त्ति य होदि वत्तव्वं ॥ लन्धि. १८९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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