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________________ १, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए चारित्तपडिवज्जणविहाणं सयलचारित्तं तिविहं खओवसमियं ओवसमियं खइयं चेदि । तत्थ खओवसमचारित्तपडिवज्जणविहाणं उच्चदे। तं जहा- पढमसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवज्जमाणो तिण्णि वि करणाणि काऊण' पडिवज्जदि । तेसिं करणाणं लक्खणं जधा सम्मत्तुप्पत्तीए भणिदं, तधा वत्तव्यं । जदि पुण अट्ठावीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासजदो वा संजमं पडिवज्जदि तो दो चेव करणाणि, अणियट्टीकरणस्स अभावादों' । एदेसि च करणाणं लक्खणं जधा संजमासंजमं पडिवज्जमाणयस्स करणाणं परूविदं तधा परूवेदव्वं, णत्थि एत्थ कोच्छि विसेसो। पढमसमयसंजमप्पहुडि अंतोमुहुत्तद्धमणंतगुणाए चरित्तलद्धीए जीवो वड्डदि। जाव चरित्तलद्धी एअंतबड्डीए वढदि ताव सो जीवो अपुव्यकरणसण्णिदो होदि । एअंतवड्डीदो से काले चरित्तलद्धीए सिया वड्वेज्ज, सिया हाएज्ज, सिया अवट्ठाएज्ज वा । संजमादो णिग्गदो असंजमं गंतूण जदि ट्ठिदिसंतकम्मेण अवट्ठिदेण पुणो संजमं पडिवज्जदि तस्स संजमं पडिवज्जमाणस्स क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिकके भेदसे सकल चारित्र तीन प्रकारका है। उनमें क्षायोपशमिक चारित्रको प्राप्त करनेका विधान कहते हैं। वह इस प्रकार हैप्रथमोपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त करनेवाला जीव तीनों ही करणोंको करके ( संयमको) प्राप्त होता है। उन करणोंका लक्षण जिस प्रकार सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें कहा है, उसी प्रकार कहना चाहिए। यदि पुनः मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत जीव संयमको प्राप्त करता है, तो दो ही करण होते हैं, क्योंकि, उसके अनिवृत्तिकरणका अभाव होता है। इन करणोंका लक्षण जिस प्रकार संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले जीवके करणोंका कहा है उसी प्रकार प्ररूपण करना चाहिए, क्योंकि, उनसे यहांपर कोई विशेषता नहीं है। प्रथमसमयसम्बन्धी संयमसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक यह जीव अनन्तगुणित चारित्रलब्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है। जब तक यह चारित्रलब्धि एकान्तानुवृद्धिसे बढ़ती है, तब तक वह जीव अपूर्वकरण संज्ञावाला रहता है। एकान्तानुवृद्धिके पश्चात् अनन्तर कालमें वह चारित्रलब्धिसे कदाचित् वृद्धिको प्राप्त हो सकता है, कदाचित् हानिको प्राप्त हो सकता है, और कदाचित् तदवस्थ भी रह सकता है। संयमसे निकल कर और असंयमको प्राप्त होकर यदि अवस्थित स्थितिसत्त्वके साथ पुनः संयमको प्राप्त होता है तो संयमको प्राप्त होनेवाले उस जीवके अपूर्वकरणका अभाव होनेसे १ सयलचीरत्तं तिविहं खयउवसमि उवसमं च खयियं च। सम्मत्तुप्पत्तिं वा उवसमसम्मेण गिण्हदो पढमं । लब्धि. १८७. २ वेदगजोगो मिच्छो अविरद देसो य दोष्णि करणाणि | देसवदं वा गिण्हदि गुणसेढी पत्थि तकरणे। लन्धि. १८८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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