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________________ २८० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १४. विद्धस्स सम्मत्तपच्छायदस्स संजमासंजमपढमसमए वट्टमाणस्स उक्स्सलद्धिट्ठाणमणंतगुणं । मणुसस्स संजमासंजमं पडि अपडिवदमाण-अपडिवज्जमाणगस्म मिच्छत्त. पच्छायदस्स सव्वविसुद्धस्स संजदासंजदविदियसमए वट्टमाणस्स जहण्णलट्ठिाणमणंतगुणं । कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि अंतरिय समुप्पत्तीदो । तिरिक्खजोणियस्स सव्वविसुद्धस्स मिच्छत्तपच्छायदस्स संजदासंजदविदियसमए वट्टमाणस्स जहण्णयं लद्विट्ठाणमर्णतगुणं । कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्तछट्टाणाणि अंतरिय समुप्पत्तीदो । तिरिक्खजोणियस्स अपडिवदमाण-अपडिवज्जमाणयस्स सव्वविसुद्धस्स सस्थाणसंजदासंजदस्स उक्कस्सयं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं । मणुसस्स अपडिवदमाण-अपडिवज्जमाणयस्स सत्थाणसंजदासंजदस्स उक्कस्सयं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं । अनुविद्ध, सम्यक्त्वसे पीछे आये हुए और संयमासंयमके प्रथम समयमें वर्तमान मनुष्यका उत्कृष्ट लब्धिस्थान पूर्वोक्त स्थानसे अनन्तगुणित है। मिथ्यात्वसे पीछे आये हुये, सर्वविशुद्ध, संयतासंयतके द्वितीय समयमें वर्तमान और संयमासंयमके प्रति अप्रतिपतमानअप्रतिपद्यमान मनुष्यका जघन्य लब्धिस्थान उपर्युक्त स्थानसे अनन्तगुणित होता है, क्योंकि, असंख्यात लोकमात्र पदस्थान अन्तरित करके इस स्थानकी उत्पत्ति होती है। सर्वविशुद्ध, मिथ्यात्वसे पीछे आये हुये, संयतासंयतके द्वितीय समयमें वर्तमान ऐसे तिर्यग्योनीय जीवका जघन्य लब्धिस्थान उपर्युक्त स्थानसे अनन्तगुणित है, क्योंकि, असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान अन्तरित करके इस स्थानकी उत्पत्ति होती है। अप्रतिपतमान-अप्रतिपद्यमान, सर्वविशुद्ध, तिर्यग्योनीय स्वस्थान संयतासंयत जीवका उत्कृष्ट लब्धिस्थान उपर्युक्त लब्धिस्थानसे अनन्तगुणित है । अप्रतिपतमान-अप्रतिपद्यमान स्वस्थान-संयतासंयत मनुष्यका उत्कृष्ट लब्धिस्थान उपर्युक्त स्थानसे अनन्तगुणित होता है। १ प्रतिषु 'तिरिक्खजोणियस्स सव्वविसुद्धस्स मिच्छत्तपच्छायदस्स संजदासंजदविदियसमए वहमाणस्स जहण्णयं लद्धिढाणमणंतगुणं, असंखेज्जलोगमेत्तलद्विहाणाणि उवरि गंतृणुप्पत्तीदो।' इत्यत्राधिक पाठः । २ प्रतिषु 'सत्थाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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