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________________ १, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए चारित्तपडिवज्जणविहाणं [२७९ एदम्सुप्पत्तीदो । तिरिक्खजोणियस्स अपच्चक्खाणादो पडिवदिय तप्पाओग्गसंकिलेसेण असंजमं गच्छमाणस्स चरिमसमए उक्कस्समपञ्चक्खाणपडिवादट्ठाणमणंतगुणं, तिरिक्खजहण्णपडिवादट्ठाणादो छवड्डीए असंखेज्जलोगमेत्तट्ठाणाणि गंतूण एदस्सुप्पत्तीदो। मणुस्सस्स संजमासंजमादो पडिवदिय असंजमं गच्छमाणस्स उकस्सयं पडिवादलद्धिट्ठाणमणंतगुणं, तिरिक्ख उक्कस्सपडिवादलद्धिट्ठाणादो छबड्डीए असंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणि गंतूण उप्पत्तीदो। मणुस्सस्स संजमासंजमं पडिवज्जमाणस्स सव्वविसुद्धस्स मिच्छाइट्ठिस्स संजमासंजमपढमसमए वट्टमाणरस जहण्णमपच्चक्खाणपडिवज्जमाणट्ठाणमणंतगुणं । कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्ता छट्ठाणाणि अंतरिय उप्पत्तीदो। तिरिक्खजोणियस्स मिच्छत्तपच्छायदरस सव्वविसुद्धस्स संजदासंजदपढमसमए वट्टमाणस्स जहण्णं देसविरदिलद्धिट्ठाणमणंतगुणं । कुदो ? मणुस्सजहण्णअपच्चक्खाणपडिवज्जमाणट्ठाणादो असंखेज्जलोगमेत्तपडिवज्जमाणलद्धिट्ठाणाणि गंतूण उप्पत्तीए । तिरिक्खजोणियस्स असंजमाणुविद्धवेदगसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयसंजदासंजदस्स उक्कस्सलद्धिहाणमणंतगुणं । कारणं पुव्वं व परूवेदव्वं । मणुसस्स सव्वविसुद्धस्स असंजमाणु ............. अप्रत्याख्यानसे गिरकर तत्प्रायोग्य संक्लेशके द्वारा असंयमको जानेवाले तिर्यग्योनीय जीवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अप्रत्याख्यानप्रतिपातस्थान उपर्युक्त स्थानसे अनन्तगुणित होता है, क्योंकि, तिर्यचके जघन्य प्रतिपातस्थानसे षड्वृद्धिके द्वारा असंख्यात लोकमात्र स्थान आगे जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति होती है। संयमासंयमसे गिरकर असंयमको जानेवाले मनुष्यका उत्कृष्ट प्रतिपातलब्धिस्थान उपर्युक्त स्थानसे अनन्तगुणित है, क्योंकि, तिर्यचसम्बन्धी उत्कृष्ट प्रतिपातलब्धिस्थानसे आगे षड्वृद्धिके द्वारा असंख्यात लोक व षट्स्थान जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति होती है। संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि मनुष्यके (अन्तिम समयमें, तथा) संयमासंयमको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें वर्तमान मनुष्यका जघन्य अप्रत्याख्यान प्रतिपद्यमानस्थान उपर्युक्त स्थानसे अनन्तगुणित होता है, क्योंकि, असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान अन्तरित करके इसकी उत्पत्ति होती है। मिथ्यात्वसे पीछे आये हुये, सर्वविशुद्ध और संयतासंयतके प्रथम समयमें वर्तमान ऐसे तिर्यग्योनीय जीवका जघन्य देशविरति लब्धिस्थान उपर्युक्त स्थानसे अनन्तगुणित होता है, क्योंकि, मनुष्यके जघन्य अप्रत्याख्यान प्रतिपद्यमानस्थानसे असंख्यात लोकमात्र प्रतिपद्यमान लब्धिस्थान आगे जा करके इस स्थानकी उत्पत्ति होती है। असंयमसे संयुक्त वेदकसम्यक्त्वसे पीछे आये हुये तिर्यग्योनीय और . प्रथमसमयवर्ती संयतासंयत जीवका उत्कृष्ट लब्धिस्थान उपर्युक्त स्थानसे अनन्तगुणित होता है। इसका कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए । सर्वविशुद्ध, असंयमसे १ प्रतिषु · संजमासंजमं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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