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________________ २७८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-८, १४. वजमाणट्ठाणत्तविरोहादो । ण विदिएण वि पडिवज्जदि । एवं णिरंतरमसंखेज्जलोगमेत्ताणि तिरिक्ख-मणुससंजदासंजदाणं पडिवादट्ठाणाणि होति । तदो अंतरमइच्छिद्ण जहणं पडिवज्जमाणगस्स संजमासंजमलद्धिट्ठाणं होदि । तदो णिरंतरमसंखेजलोगमेत्ताणि पडिवज्जमाणट्ठाणाणि हवंति । पुणो अंतरमुल्लंघिय अपडिवाद-अपडिवज्जमाणसंजमासंजमलद्धिट्ठाणाणं जहण लद्धिट्ठाणं होदि। तदो णिरंतरमसंखेज्जलोगमेत्ताणि अपडिवादअपडिवज्जमाणदेससंजमलद्धिट्ठाणाणि होति । एदेसिं तिव्व-मंददाए अप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। तं जधा- सव्वमंदाणुभागं जहण्णयं संजमासंजमलद्धिवाणं । मणुसस्स संजदासंजदस्स सव्यसंकिलिट्ठस्स मिच्छत्तं गच्छमाणस्स चरिमसमए जहण्णं देससंजमलद्धिट्ठाणं तत्तियं चेव, दोण्हमेगत्तादो । तिरिक्खजोणियस्स देससंजमादो पडिवदिय मिच्छत्तं गच्छमाणस्य सव्यसंकिलिट्ठस्स चरिमसमए जहण्णमपञ्चक्खाणलद्विट्ठाणमणतगुगं । कुदो ? मणुस्सजहण्णापचक्खाणपडिवादिट्ठाणादो छबड्डीए असंखेज्जलोगमेत्तमणुस्सापच्चक्खाणपडिवादट्ठाणाणि गंतूण नहीं हो सकता। द्वितीय लब्धिस्थानसे भी संयमासंयमको नहीं प्राप्त होता है। इस कार निरन्तर, अर्थात् तृतीय, चतुर्थ आदिको आदि लेकर अन्तर-रहित असंख्यात लोकमात्र प्रतिपातस्थान तिर्यच और मनुष्य संयतासंयतोंके होते हैं । तत्पश्चात् अन्तरका उल्लंघन कर संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले जीवके जघन्य संयमासंयम लब्धिका स्थान होता है। इससे आगे निरन्तर असंख्यात लोकमात्र प्रतिपद्यमानस्थान होते हैं । पुनः अन्तरका उल्लंघन करके अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान संयमासंयम लब्धिस्थानोंका सबसे जघन्य लब्धिस्थान होता है। इससे आगे निरन्तर असंख्यात लोकमात्र अप्रतिपातअप्रतिपद्यमान संयमासंयम लब्धिके स्थान होते हैं । अब इन लब्धिस्थानोंकी तीव्र-मन्दताका अल्पबहुत्व कहेंगे। वह इस प्रकार हैजघन्य संयमासंयम लब्धिस्थान सबसे मन्द अनुभागवाला है। सर्वसंक्लिष्ट और मिथ्यात्वको जानेवाले संयतासंयत मनुष्यके अन्तिम समय में संभव जघन्य देशसंयम लब्धिका स्थान उतना ही है, क्योंकि, दोनोंके एकता है। देशसंयमसे गिरकर मिथ्यात्वको जाने वाले और सर्वसंक्लिष्ट ऐसे तिर्यंचयोनिवाले जीवके अन्तिम समयमें जघन्य अप्रत्याख्यान (संयमासंयम) लब्धिस्थान उपर्युक्त मनुष्य संयतासंयतसम्बन्धी जघन्य लब्धिस्थानसे अनन्तगुणित है, क्योंकि, मनुष्यके जघन्य अप्रत्याख्यान प्रतिपातिस्थानसे आगे षड्वृद्धिके द्वारा असंख्यात लोकमात्र मनुष्यसम्बन्धी अप्रत्याख्यानप्रतिपातस्थान जाकर इस तिर्यंच योनिवाले जघन्य संयमासंयम लब्धिस्थानकी उत्पत्ति होती है । १णरतिरिये तिरियणरे अवरं अवरं वरं वरं तिसु वि। लोयाणमसंखेज्जा छठाणा होंति तम्भज्झे ॥ पडि. बाददुगवरवरं मिरके अयदे अणुभयगजहणं । मिच्छवरविदियसमये तत्तिरियवरं तु सट्टाणे ॥ लन्धि. १८५-१८६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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