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२६८ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,९-८, १४. तं चारित्तं दुविहं देसचारित्तं सयलचारितं चेदि । तत्थ देसचारित्तं पडिवज्जमाणा मिच्छाइट्ठिणो दुविहा हॉति वेदगसम्मत्तेण सहिदसंजमासंजमाभिमुहा उवसमसम्मत्तेण सहिदसंजमासंजमाभिमुहा चेदि । संजमं पडिवजंता वि एवं चेव दुविहा होति । एदेसु संजमासंजमं पडिवज्जमाणचरिमसमयमिच्छाइट्ठी तदो पढमसम्मत्ताभिमुहेचरिमसमयमिच्छाइट्ठिबंधादो दिट्ठिसंतकम्मादो च सत्तण्हं कम्माणं अंतोकोडाकोडिं द्विदि ठवेदि। एदस्स भावत्थो- पढमसम्मत्ताभिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिद्विदिवंधादो ( द्विदिसंतकम्मादो च) संजमासंजमाभिमुहचरिमसमयमिच्छाइद्विद्विदि -(बंध-द्विदि-) संतकम्म संखेजगुणहीणं । कुदो ? पढमसम्मत्ततिकरणपरिणामेहितो अणंतगुणेहि पढमसम्मत्ताणुविद्धसंजमासंजमपाओग्गतिकरणपरिणामेहिं पत्तघादत्तादो। वेदगसम्मत्तं संजमासंजमं च
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वह चारित्र दो प्रकारका है-देशचारित्र और सकलचारित्र। उनमें देशचारित्रको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव दो प्रकारके होते हैं-वेदकसम्यक्त्वसे सहित संयमासंयमके अभिमुख और उपशमसम्यक्त्वसे सहित संयमासंयमके अभिमुख। इसी प्रकार संयमको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव भी दो प्रकारके होते हैं। इनमें संयमासंयमको प्राप्त होनेवाला चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि, उससे, अर्थात् प्रथ
प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादाष्टके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्वकी अपेक्षा आयुकर्मको छोड़कर शेष सातों कर्मोकी अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिको स्थापित करता है। इस उपर्युक्त कथनका भावार्थ यह है--प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिके स्थितिबन्धसे (और स्थितिसत्त्वसे) संयमासंयमके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिका (स्थितिबन्ध और ) स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित हीन होता है, क्योंकि,प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले तीनों करण परिणामोंकी अपेक्षा अनन्तगुणित ऐसे प्रथमोपशमसम्यक्त्वसे संयुक्त संयमासंयमके योग्य तीनों करण-परिणामोंसे यह स्थितिघात प्राप्त हुआ है । वेदकसम्यक्त्वको और संयमासंयमको
१ दुविहा चरित्तल द्धी देसे सयले य देसचारित्तं । मिच्छो अयदो सयलं ते वि य देसो य लभेइ ॥ लन्धि. १६६.
२ आ-कप्रत्योः ' -ताभिमुहा' इति पाठः ।
३ अंतोमुहुत्तकाले देसवदी होहिदि ति मिच्छो हु। सोसरणो सुझंतो करणेहिं करेदि सगजोग्गं ॥ लन्धि. १६७.
४ संजमासंजममंतोमुहुत्तेण लभिहिदि ति तदो प्पहुडि सब्बो जीवो आउगवज्जाण कम्माणं विदिबंधहिदिसंतकम्मं च अंतोकोडाकोडीए करेदि ।......एदस्स सुत्तस्सत्थो वुच्चदे-- वेदगपाओग्गमिच्छाइट्टी ताव संजमासंजमं पडिवज्जमाणो पुवमेव अंतोमुहुत्तमस्थि ति सत्थाणपाओग्गाए विसोहीए पडिसमयमणंतगुणाए विसुज्झमाणो भाउगवज्जाणं सव्वेसिं कम्माणं हिदिबंध-हिदिसतकम्मं च अंतोकोडाकोडीए करेदि । जयध. अ. प. ९८५.
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