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१, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए खइयसम्मत्तुप्पादणं [२६७ उत्ते सव्वविसुद्धमिच्छाइट्ठिणा द्विदिबंधोसरण-ट्ठिदिखंडयघादेहि घादिय विदडिदिसंतकम्माणं गहणं । तदो तत्तो एदेसिं सत्तण्डं कम्माणमंतोकोडाकोडिं संखेज्जगुणहीणं हवेदि उप्पादेदि त्ति उत्तं होदि । एत्थ संखेज्जगुणहीणत्तं सुत्ते असंत' कुदो लब्भदे ? अज्झाहारादो । मिच्छाइटिहिदिबंधं हिदिसंतं च अपुव्व-अणियट्टीकरणेहि घादिय संखेज्जगुणहीणं कादण पढमसम्मत्तं पडिवज्जदि त्ति एदेण जाणाविदं । एत्थतणद्विदिबंधादो द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं, विसोहिणा संतादो द्विदिबंधस्स भूओ घादोवदेसा ।
चारित्तं पडिवज्जतो तदो सत्तकम्माणमंतोकोडाकोडि हिदि हवेदि णाणावरणीयं दसणावरणीयं वेदणीयं णामं गोदं अंतराइयं चेदि ॥१४॥
सूत्रमें 'तदो' यह पद कहनेपर सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा स्थितिबन्धापसरण और स्थितिकांडकघातसे घातकर स्थापित कर्मोके स्थितिसत्त्वका ग्रहण करना चाहिए। उससे, अर्थात् सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा स्थापित स्थितिसत्त्वसे, संख्यातगुणित हीन अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण इन सूत्रोक्त सात कर्मोंका स्थितिसत्त्व स्थापित करता है, अर्थात् उत्पन्न करता है, यह अर्थ कहा गया है।
शंका-यहां सूत्रमें अविद्यमान संख्यात गुणहीनका भाव कहांसे लब्ध होता है?
समाधान-सूत्रमें अविद्यमान उक्त अर्थ अध्याहारसे उपलब्ध होता है।
मिथ्यादृष्टिके स्थितिबन्धको और स्थितिसत्त्वको अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामोंके द्वारा घात करके संख्यातगुणित हीन कर प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है, यह बात इस सूत्र-पदसे ज्ञापित की गई है। यहांपर होनेवाले स्थितिबन्धसे यहांपर होनेवाला स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित होता है, क्योंकि, विशुद्धिके द्वारा सत्त्वकी अपेक्षा स्थितिबन्धके बहुत घातका उपदेश पाया जाता है।
उस प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा चारित्रको प्राप्त होनेवाला जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय, इन सात कर्मोंकी अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण स्थितिको स्थापित करता है ॥१४॥
१ 'होदि । एत्थ......असंत' इति पाठः प्रतिषु नास्ति । म-प्रतौ ' होदि । एत्थ संखेज्जगुणहीणं तं सुत्तं असंतं ' इति पाठः ।
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