SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १३. गुणं । दसणमोहणीयवज्जाणं' कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। तेसिं चेव उक्कस्सओ द्विदिवंधो संखेज्जगुणो । दसणमोहणीयवज्जाणं जहण्णद्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । तेसिं चेवुक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । सम्मत्तं पडिवज्जतो तदो सत्तकम्माणमंतोकोडाकोडिं ठवेदि णाणावरणीयं दंसणावरणीयं वेदणीयं मोहणीयं णामं गोदं अंतराइयं चेदि ॥ १३ ॥ सम्मत्तुप्पत्तीए परूविज्जमाणाए सत्तण्हं कम्माणं विदिबंध ट्ठिदिसंतकम्माणं पमाणं पुव्वं चेव परविदं तदो तमेत्थ ण वत्तव्यं, पुणरुत्तदोसप्पसंगादो ? ण एस दोसो, सम्मत्तं पडिवज्जंतस्स हिदिबंध-ट्ठिदिसंतकम्माणं पुव्वं परूविदपमाणं संभालिय चारित्तं पडिवज्जंतस्स डिदिबंध-डिदिसंतकम्माणं पमाणपरूवणट्ठमेदस्स परूवणादो। तदो इदि मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है। इससे दर्शनमोहनीय कर्मको छोड़कर शेष कर्मोंका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणित है। इससे उन्हीं कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणित है। इससे दर्शनमोहनीयकर्मको छोड़कर शेष कर्मोंका जघन्य स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है। इससे उन्हीं कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व संख्यातगुणित है। उस सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाला जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय, इन सात कर्मोकी अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिको स्थापित करता है ॥ १३ ॥ शंका-सम्यक्त्वोत्पत्तिकी प्ररूपणा करते समय सातों कर्मोंके स्थितिवन्धों और स्थितिसत्त्वोंका प्रमाण पहले ही प्ररूपण कर दिया गया है, इसलिए उसे यहांपर नहीं कहना चाहिए, क्योंकि पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता है? __ समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके कर्मोंके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वका पूर्वप्ररूपित प्रमाण स्मरण कराकर चारित्रको प्राप्त करनेवाले जीवके स्थितिवन्ध और स्थितिसत्त्वका प्रमाण प्ररूपण करनेके लिए पुन: इसका प्ररूपण किया गया है। १ प्रतिघु ' -मोहणीयं वज्जाणं ' इति पाठः । २ विदियकरणस्स पढमे ठिदिखंडविसेसयं तु तदियस्स। करणस्स पदमसमये दंसणमोहस्स ठिदिसंतं ॥ दसणमोट्ठणाणं बंधो संतो य अवर वरगो य । संखेये गुणियकमा तेत्तीसा एस्थ पदसंखा ॥ लब्धि. १६१-१६२. ३ प्रतिषु 'संत-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy