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________________ १, ९-८, १२. ] चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए खइयसम्मत्तप्पादणं [ २६३ ति भण्णदि । कदकर णिज्जकाल मंतरे तस्स मरणं पि होज्ज, काउ-तेउ-पम्म सुक्कलेस्साणमण्णदराए लेस्साए वि परिणामेज्ज, संकिलिस्सदु वा विमुज्झदु वा, तो वि असंखेज्जगुणाए सेडीए जाव समयाहियावलिया सेसा तात्र असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा, उक्कस्सिया वि उदीरणा उदयस्स असंखेज्जदिभागो' । पढमसमयअपुव्वकरणमादिं कादृण जाव पढमसमयकदकरणिज्जो त्ति एदम्हि अंतरे अणुभागखंडय-द्विदिखंडयउक्कीरणद्धाणं जहण्णुक्कस्सट्ठिदिखंड-ट्ठिदिसंतकम्माणमण्णसिं च पदाणमप्पा बहुगं वत्तइस्सामो' । तं जहा - सव्वत्थोवा जहण्णिया अणुभागखंडयउक्कीरणद्धा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । ट्ठिदिखंडयउक्कीरणद्धा द्विदिबंधगद्धा च जहणिया दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ । ताओ उक्कस्सियाओ दो कृत्यवेदक' कहलाता है । कृतकृत्यवेदककालके भीतर उसका मरण भी हो, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल, इन लेश्याओंमेंसे किसी एक लेश्याके द्वारा भी परिणमित हो, संक्लेशको प्राप्त हो, अथवा विशुद्धिको प्राप्त हो, तो भी असंख्यातगुणित श्रेणीके द्वारा जब तक एक समय अधिक आवलीकाल शेष रहता है तब तक असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती रहती है । उत्कृष्ट भी उदीरणा उदयके असंख्यातवें भाग होती है । अब, प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरणको आदि करके जब तक प्रथमसमयवर्त्ती कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि है, तब तक इस अन्तराल में अनुभागकांडक और स्थितिकांडक के उत्कीरणकालोंके, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकांडक तथा स्थितिसत्त्वोंके एवं अन्य भी पदोंके अल्पबहुत्वको कहते हैं । वह इस प्रकार है- जघन्य अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल सबसे कम है । इससे वही उत्कृष्ट, अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल, विशेष अधिक है । इससे जघन्य स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और जघन्य स्थितिबन्धकाल, ये दोनों ही परस्पर तुल्य होते हुए संख्यातगुणित हैं । इनसे इन खंडे हवेज्ज गुणसेटी । फाडेदि चरिमफालिं अणियद्वीकरणच रिमम्हि ॥ चरिमं फालिं देवि हु पढमे पच्चे असंख* गुणियक्रमा अंतिमसमयम्हि पुणो पल्लासंखेज्जमूलाणि ॥ लब्धि. १४१-१४४. १ चरिमे फालिं दिष्णे कदकरणिज्जेत्ति वेदगो होदि । सो वा मरणं पावइ चउगइगमणं च तट्ठाणे | देवेसु देवमणुए सुरणरतिरिए चउरगई पि । कदकरणिज्जोपत्ती कमेण अंतोमुहुचेण ॥ करणपढमादु जाव य किद किच्चुवरिं मुहुत्तअंतोति । ण सहाण परावत्ती साधि कओदावरं तु वरिं ॥ अणुसमओवट्टणयं कदकिज्जतो त्ति पुव्वकिरियादी । वट्टदि उदीरणं वा असंखतमयप्पबद्धाणं ॥ उदयवहिं उक्कट्टिय असंखगुणमुदयआवलिम्हि खिवे । उवरिं विसेसहीणं कदकिज्जो जाव अइत्थवणं ॥ जदि संकिलेसजुत्तो विसुद्विसहिदो व तो वि पडिसमयं । दव्बमसंखेज्जगुणं उक्कट्टदि णत्थि गुणसेढी ॥ जदि वि असंखेज्जाणं समयपबद्धाणुदीरणा तोवि उदयगुणसेढिठिदिए असंखभागो हु पडिसमयं ॥ लब्धि. १४५-१५१. २ विदियकरणादिमादो कदकरणिज्जस्स पढमसमओ त्ति । वोच्छं रसखंडकीरणकालादीणमप्पबहु || लब्धि. १५२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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