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________________ २६२] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ९-८, १२. माणासु' हिदीसु जे पदेसग्गमुदए दिज्जदि तं थोवं, से काले असंखेज्जगुणं । ताव असंखेज्जगुणं जाव ट्ठिदिखंडयस्स जहणियाए वि द्विदीए चरिमसमयं अपत्तं ति । सा चेव द्विदी गुणसेडीसीसयं जादा । जं संपहि गुणसेडीसीसयं तत्तो उवरिमाणंतराए हिदीए असंखेज्जगुणहीणं । तदो विसेसहीणं जाव हेट्ठा ण गुणसेडीसीसयं ताव । तदो उपरिमाणंतराए ट्ठिदीए असंखेज्जगुणहीणं, तदो विसेसहीणं । एवं सेसासु वि द्विदीसु विसेसहीणं दिज्जदि । जं विदियसमए उक्कीरदि पदेसग्गं तं पि एदेणेव कमेण दिदि । एवं ताव जाव हिदिखंडयस्स उक्कीरणद्धाए दुचरिमसमओ त्ति । द्विदिखंडयस्स चरिमसमए ओकड्डमाणो उदए पदेसग्गं थोवं, से काले असंखेज्जगुणं । एवं जाव गुणसेडीसीसयं ताव असंखेज्जगुणं । गुणगारा वि दुचरिमाए हिदीए पदेसग्गादो चरिमाए विदीए पदेसग्गस्स असंखेजाणि पलिदोवमवर्गमूलाणि । चरिमे द्विदिखंडए णिट्ठिदे कदकरणिजो प्रदेशाग्र उदयमें दिया जाता है वह अल्प है, अनन्तर समयमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। इस क्रमसे तब तक असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है जब तक कि स्थितिकांडककी जघन्य भी स्थितिका अन्तिम समय नहीं प्राप्त होता है। वह स्थिति ही गुणश्रेणीशीर्ष कहलाती है। जो इल समय गुणगीशीर्ष है, उससे ऊपरकी अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाग्रको देता है। इसके पश्चात् विशेष हीन प्रदेशाग्रको देता है जब तक नीचे गुणश्रेणीशीर्ष नहीं प्राप्त होता है। उससे ऊपरकी अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगुणित हीन प्रदेशाग्रको देता है और उससे ऊपर विशेष हीन प्रदेशाग्रको देता है। इसी प्रकार शेष भी स्थितियों में विशेष हीन प्रदेशाग्रको देता है समयमें जिस प्रदेशाग्रको उत्कीर्ण करता है, उसे भी इस ही क्रमसे देता है। इस प्रकार यह क्रम तब तक जारी रहता है जब तक कि स्थितिकांडकके उत्कीर्ण कालका द्विचरम समय प्राप्त होता है। स्थितिकांडकके अन्तिम समयमें अपकर्षण किये गये द्रव्यमेंसे उदयमें अल्प प्रदेशाग्रको देता है और अनन्तर कालमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। इस प्रकार जब तक गुणश्रेणीशीर्ष प्राप्त होता है, तब तक असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। द्विचरम स्थितिके प्रदेशाग्रसे चरम स्थितिके प्रदेशाग्रके गुणकार भी पल्योपमके असंख्यात वर्गमूल हैं। अन्तिम स्थितिकांडकके समाप्त होनेपर 'कृत १ अ-कप्रत्योः · ओवड्डिज्जमाणासु' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'अप्पत्तत्ति' इति पाठः । ३ तत्तकाले दिस्सं वज्जिय गुणसे ढिसीसयं एक्कं । उवरिमठिदीसु वदि विसेसहीणक्कमेणेव ॥ गुणसेदि. संखभागा तचो संखगुण उवरिमठिदीओ। सम्मत्तचरिमखंडो दुचरिमखंडादु संखगुणो ॥ सम्मत्तचरिमखंडे दुचरिमफालि ति तिण्णि पवाओ । संपहियपुव्वगुणसेढीसीसे सीसे य चरिमम्हि ॥ लब्धि. १३८-१४०. ४ तत्थ असंखेज्जगुणं असंखगुणहीणयं विसेसूर्ण । संखातीदगुणूर्ण विसेसहीणं च दत्तिकमो॥ उक्कट्टिदबहभागे पढमे सेसेकभागबहुभागे। विदिए पचे वि सेसिगभागं तदिये जहाँ देदि॥ उदयादिगलिदसेसा चरिमे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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