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________________ २६० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १,९-८, १२. ___उदए थोवं पदेसग्गं देदि । से काले असंखेज्जगुणं देदि । एवं जाव गुणसेडीसीसयं ताव असंखेज्जगुणं । तदो उपरिमाणंतरविदीए वि असंखेज्जगुणं देदि । तदो विसेसहीणं देदि। पुणो अणेण विधिणा सेसअट्ठवस्समेत्तट्ठिदिसंतकम्मम्मि विसेसहीणं चेव देदि । पुबिल्लगोउच्छदव्वादो ट्ठिदि पडि संपडि दिज्जमाणदव्यमसंखेज्जगुणं । विदियसमए उदयावलियबाहिरद्विदीसु द्विदपदेसग्गमोकड्डणभागहारेण खंडिदेयखंडं घेत्तृणुदये थोवं देदि । उवरिमहिदीए असंखेज्जगुणं' देदि । एवं जाव गुणसेडीसीसयं ताव असंखेज्जगुणं चेव देदि। तदो उवरिमाणंतराए द्विदीए असंखेज्जगुणं देदि । पुणो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणं चेव देदि । संपदि पुव्विल्लगुणसेढीसीसयादो संपदिगुणसेढिसीसयदव्वमसंखेज्जगुणं होदि । विसेसाहियं चेव दिस्समाण होदि। कुदो ? विदिय उदयमें अर्थात् वर्तमान समयमें उदय आनेवाले निषेकमें, अल्प प्रदेशाग्रको देता है। उससे अनन्तर समयमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। इस प्रकार गुणश्रेणीके शीर्ष तक असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। इससे ऊपरकी अनन्तर स्थितिमें भी असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। तत्पश्चात् विशेष हीन देता है । पुनः इसी विधिसे शेष आठ वर्षमात्र स्थितिसत्त्वमें विशेष हीन ही देता है । पहलेके गोपुच्छरूप द्रव्यसे स्थितिके प्रति इस समय दिया जानेवाला द्रव्य (पूर्व द्रव्यकी अपेक्षा) अनन्तगुणित हीन होता है। द्वितीय समयमें उदयावलीसे बाहिरकी स्थितियों में स्थित प्रदेशाग्रको अपकर्षणभागहारसे खंडित कर उसमेंसे एक खंडको ग्रहण कर उदयमें अल्प प्रदेशाग्रको देता है, उससे ऊपरकी स्थितिमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। इस प्रकार गुणश्रेणीके शीर्ष तक असंख्यातगुणित ही प्रदेशाग्रको देता है। उससे ऊपरकी अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्रको देता है। पुनः उसके ऊपर सर्वत्र विशेषहीन ही प्रदेशाग्रको देता है। अब पहलेके गुणश्रेणीशीर्षसे साम्प्रतिक गुणश्रेणीके शीर्षका द्रव्य असंख्यातगुणित होता है। दृश्यमान द्रव्य विशेष अधिक ही होता है, १ आ-प्रतौ · संखेज्जगुणे ' इति पाठः । २ आ-कपत्योः 'जदि', अप्रतौ देदि जदि ' इति पाठः। ३.अडवस्से उवरिम्म वि दुचरिमखंडस्स चरिमफालि त्ति । संखातीदगुणक्कम विसेसहीणक्कम देदि ॥ अडवस्से संपहियं पुविल्लादो असंखसंगुणियं । उवरिं पुण संपहियं असंखसंखं च भागं तु ॥ ठिदिखंडाणुक्कीरण दुचरिमसमओ त्ति चरिमसमये च । उक्कट्टिदफालीगददञ्चाणि णिसिंचदे जम्हा ॥ अडवस्से संपहियं गुणसेढीसीसयं असंखगुणं । पुविल्लादो णियमा उवरि विसेसाहियं दिस्सं ॥ लब्धि. १३१-१३५. ४ दिज्जमाणमिदि भणिदे सव्वत्थ तककालमोकट्टियूण णिसिंचमाणदव्वं घेत्तव्यं । दीसमाणमिदि भणिदे चिराणसंतकम्मेण सह सव्वदव्वसमूहो घेत्तव्वो। जयध. अ. प. ९७६. सर्वत्र तत्कालापत्कृष्ट द्रव्यमुदयप्रथमसमयाप्रभृति निक्षिप्यमाणं दीयमानं, तेन सहितं सर्वसरवद्रव्यं दृश्यमानमिति राद्धान्तवचनात् । लब्धि. १३३ टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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