________________
२५८ ]
.......
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-८, १२. गदाए मिच्छत्तस्स जहण्णयं द्विदिसंतकम्मं । मिच्छत्ते पढमसमयसंकते सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं असंखेज्जा भागा सेसस्स आगाइदा । एवं संखेज्जेहि द्विदिखंडएहि गदेहि सम्मामिच्छत्तमावलियबाहिरसव्वमागाइदं । ताधे सम्मत्तम्हि अट्ठवस्साणि मोत्तूण सव्वमागाइदं । संखेज्जाणि वाससहस्साणि मोत्तूण आगाइदमिदि भणंता वि अस्थि ।
एदम्हि द्विदिखंडए णिद्विदे ताधे सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णओ द्विदिसंकमो । जदि गुणिदकम्मंसिओ तो उक्कस्सओ पदेससंकमो, सम्मत्तस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं । एत्तो पाए अंतोमुहुत्तिओ ट्ठिदिखंडगो । अपुचकरणस्स पढमसमयदो जाव विरति, आठ वार विरतिको प्राप्त कर व आठ ही वार अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन व चार वार मोहनीयका उपशम कर शीघ्र ही कर्मोका क्षय करता है, वह उत्कृष्ट क्षपितकर्माशिक होता है।
जो जीव उपर्युक्त प्रकारले न गुणितकर्माशिक है और न क्षपितकौशिक है, किन्तु अनवस्थित रूपसे कर्मसंचय करता है वह गुणित-क्षपित-घोलमान है।
प्रस्तुत प्रसंगमें आचार्य कहते हैं कि मोहनीयकी क्षपणाके क्रममें जब जीव मिथ्यात्वका स्थितिसंक्रमण करता है उस समय यदि वह जीव गुणितकर्माशिक है तो उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण करता है, और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट सत्ता भी उसीके होती है। अन्यथा अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता भी अनुत्कृष्ट होती है।
इसके पश्चात् दो समय कम आवलीप्रमाण मिथ्यात्वके समयप्रबद्धोंके नष्ट होनेपर मिथ्यात्वकर्मका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। सर्वसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वके संक्रमण करनेपर प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों कर्मोके घात करनेसे शेष बचे सत्त्वके असंख्यात बहुभागोंको स्थितिकांडकरूपसे ग्रहण किया। इस प्रकार संख्यात स्थितिकांडकोंके व्यतीत होनेपर उदयावलीसे वाह्य सम्यग्मिथ्यात्वके सर्व सत्त्वको ग्रहण किया। उसी समय सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वमें आठ वर्षोंको छोड़कर शेष सर्व स्थितिसत्त्वको ग्रहण किया। सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वमें 'संख्यात हजार वर्षोंको छोड़कर शेष समस्त स्थितिसत्त्वको ग्रहण किया' इस प्रकारसे कहनेवाले भी कितने ही आचार्य हैं। अर्थात् कितने ही आचार्योंके मतसे उस समय सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिसत्त्व आठ वर्ष नहीं, किन्तु संख्यात हजार वर्ष रहता है।
इस स्थितिकांडकके समाप्त होनेपर उसी समय सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रमण होता है। यदि वह जीव गुणितकर्माशिक है, तो उस समय उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है। (अन्यथा अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है।) उसी समय सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व होता है। यहांसे लेकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाणवाला स्थितिकांडक होता है । अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग
१मिच्छच्छिट्ठादुवरि पहासंखेज्जभागगे खंडे । संखेज्जे समतीदे मिस्मुच्छि8 हवे णियमा | मिस्सुच्छि?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org