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________________ चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए खइयसम्मत्तप्पादणं १, ९-८, १२. ] [ २५७ अणुक्कस्सओ | ता सम्मामिच्छत्तस्स उक्कसयं पदेस संतकम्मं होदि । जदि गुणिदखविदघोलमाणो' खविदकम्मंसिओ वा तो अणुक्कस्सं । तदो आवलियाए दुसमऊणाए समय उस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व होता है। यदि वह जीव गुणित-क्षपित घोटमान अथवा क्षपित कर्माशिक है, तो उसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसरव होता है । विशेषार्थ — जो जीव अनेक भवोंमें उत्तरोत्तर गुणितक्रमसे कर्मप्रदेशका बन्ध करता रहा है उसे गुणितकर्माशिक कहते हैं । जो जीव उत्कृष्ट योगों सहित बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त भवोंसे लेकर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपमप्रमाण बादर त्रसकायमें परिभ्रमण करके जितने वार सातवीं पृथिवीमें जाने योग्य होता है उतनी वार जाकर पश्चात् सप्तम पृथिवीमें नारक पर्यायको धारण कर व शीघ्रातिशीघ्र पर्याप्त होकर उत्कृष्ट योगस्थानों व उत्कृष्ट कषायों सहित होता हुआ उत्कृष्ट कर्मप्रदेशोंका संचय करता है और अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुके शेष रहनेपर त्रिचरम और द्विचरम समय में वर्तमान रहकर उत्कृष्ट संक्लेशस्थानको तथा चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योगस्थानको भी पूर्ण करता है, वह जीव उसी नारक पर्यायके अन्तिम समयमें संपूर्ण गुणितकर्माशिक होता है । जो जीव पल्यके असंख्यातवें भागसे हीन सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण काल तक सूक्ष्म निगोद पर्यायमें रहा और भव्य जीवके योग्य जघन्य कर्मप्रदेशसंचयपूर्वक सूक्ष्म निगोद से निकलकर बादर पृथिवीकायिक हुआ और अन्तर्मुहूर्त कालमें निकलकर तथा सात माह में ही गर्भसे उत्पन्न होकर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न, और विरतियोग्य सोंमें हुआ तथा आठ वर्षमें संयमको प्राप्त करके संयम सहित ही मनुष्यायु पूर्ण कर पुनः देव, बादर पृथिवीकायिक व मनुष्यों में अनेक वार उत्पन्न होता हुआ पल्योमके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यात वार सम्यक्त्व, उससे स्वल्पकालिक देश तक्कालमेत्र मंते य सत्तमखिईए । सव्वलहुं पज्जतो जोगकसायाहिओ वहुसो ॥ ७६ ॥ जोगजवमज्युवरिं मुहुतमच्छित्तु जीवियवसाणे | तिचरिमदुचरिमसमए पूरित्तु कसायउक्करसं ॥ ७७ ॥ जोगुक्कोसं चरिम दुचरिमे समए य चरिमसमयम्मि । संपुण्णगुणियकम्मो पगयं तेणेह सःमित्ते ॥ ७८ ॥ संकोमणाए दोन्हं मोहाणं वेयगस्स खणसेसे । उप्पाइय सम्मत्तं मिच्छतगए तमतमाए ॥ ८२ ॥ कर्म प्र. पत्र १८७-१८९. १ तानि परिणामयोगस्थानानि सर्वाण्यपि घोटमानयोगा एव स्युः, हानिवृद्धयवस्थानरूपेण परिणमनात् । गो. क. २२१. टीका. २ पल्लासंखियभागोणकम्मट्टिइमच्छिओ निगोए । सुहुमेस (सु) भवियजोगं जहणयं कट्टु निगम ॥ ९४ ॥ जोग्गेस (सु) संखवारे सम्मत्तं लभिय देसविरयं च । अट्ठक्खुत्तो विरई संजोयणहा य तइवारे ॥ ९५ ॥ चउरुवसमितु मोहं हुं खवेंतो भवे खवियकम्मो ॥ ९६ ॥ हस्सगुणसंकमद्धाए पूरयित्वा समीससम्मत्तं । चिरसंमत्ता मिच्छतगयस्तुब्वलणथोगो सिं ॥ १०० ॥ कर्म प्र. प. १९४-१९६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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