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________________ २५०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-८, १२. असंखेज्जगुणहीणं देदि । उपरि सव्वत्थ विसेसहीणं चेव देदि जाव अप्पप्पणो अइच्छावणावलियमपत्तमिदि। एवं सन्धिस्से अपुब्धकरणद्धाए गुणसेढीकरणविधी वत्तव्वा । णवरि पढमसमए ओकड्डिदपदेसहितो विदियसमए असंखेज्जगुणे ओकड्डदि । तत्तो असंखेज्जगुणे तदियसमए ओकड्डदि । एवं णेयव्यं जाव अणियट्टीकरणचरिमसमओ त्ति । पढमसमए दिज्जमाणपदेसग्गादो विदियसमए' गुणसेडीए दिज्जमाणपदेसग्गमसंखेज्जगुणं । एवं णेदव्यं जाव अणियट्टीकरणचरिमसमओ त्ति । एत्थ द्विदिबंधकालो द्विदिखंडय उकीरणकालो च एगकालिया दो वि सरिसा अंतोमुहुत्तमत्ता, तत्थतणअणुभागखंडयउक्कीरणद्धादो संखेज्जगुणा । एवं णेदव्यं जाव द्विदि-अणुभागखंडयाणं अपच्छिमघादो त्ति । णवरि पढमट्टिदिअणुभागखंडय उकीरण द्धाहिंतो विदियट्ठिदि-अणुभागखंडयउक्कीरणद्धाओ विसेसहीणाओ। एवमणंतरहेट्ठिमाहितो अणंतरउवरिमाओ सव्वत्थ विसेसहीणाओ। एबमणेण विहाणेण अपुवकरणद्धा समत्ता । एत्थ अपुव्यकरणपढम ऊपर सर्व स्थितियों में विशेष हीन ही देता है जब तक कि अपने अपने अतिस्थापनावलीको नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण अपूर्वकरणके कालमें गुणश्रेणी करनेकी विधि कहना चाहिए। केवल विशेषता यह है कि प्रथम समयमें अपकर्षित प्रदेशोसे दूसरे समयमें असंख्यातगुणित प्रदेशोंका अपकर्षण करता है। उससे असंख्यातगुणित प्रदेशोंको तीसरे समयमें अपकर्षित करता है। इस प्रकार यह क्रम अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। प्रथम समयमें दिए जानेवाले प्रदेशाग्रसे द्वितीय समयमें गुणश्रेणीके द्वारा दिए जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणित होता है। इस प्रकार यह क्रम अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यहांपर स्थितिबन्धका काल और स्थितिकांडकके उत्कीरणका काल, ये एक साथ चलनेवाले दोनों काल, सदृश और अन्तर्मुहूर्तमात्र हैं, तो भी यहांपर होनेवाले अनुभागकांडकके उत्कीरणकालसे संख्यातगुणित हैं। इस प्रकार यह क्रम स्थितिकांडक और अनुभागकांडकके अन्तिम घात तक ले जाना चाहिए। विशेप बात यह है कि प्रथमस्थितिकांडकोत्कीरणकाल और अनुभागकांडकोत्कीरणकालोसे द्वितीय स्थितिकांडकोत्कीरणकाल और अनुभागकांडकोत्कीरणकाल विशेष हीन होते हैं। इस प्रकार अनन्तर-अधस्तन स्थितिकांडकों और अनुभागकांडकोंके उत्कीरणकालोसे अनन्तर-उपरिम स्थितिकांडकों और अनुभागकांडकोंके उत्कीरणकाल सर्वत्र विशेष हीन होते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त विधानसे अपूर्वकरणका काल समाप्त हुआ । यहांपर अपूर्वकरणके प्रथम समयसम्बन्धी स्थिति १ प्रतिषु' जदि ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' -समओ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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