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________________ १, ९-८, १२.] चूलियाए सन्तुप्पत्तीए खइयसम्मत्तुप्पादणं [२५१ द्विदिसंतादो द्विदिबंधादो च चरिमट्ठिदिसंत-ट्ठिदिबंधा संखेज्जगुणहीणा । अणुभागसंतकम्मादो पुण अणुभागसंतकम्ममणंतगुणहीणं । अणियट्टीकरणपढमसमए अण्णो द्विदिबंधो, अण्णो द्विदिखंडओ, अण्णो अणुभागखंडओ, अण्णा च गुणसेडी एकसराहेण आढत्ता । एवमणियट्टीअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु विसेसघादेण धादिज्जमाणअणंताणुबंधिचउक्कढिदिसंतकम्ममसण्णिद्विदिबंधसमाणं जादं । तदो द्विदिखंडयसहस्सेसु चदुरिंदियट्ठिदिबंधसमाणं जादं । एवं तीइंदिय-बीइंदिय-एइंदियबंधसमाणं होदण पलिदोवमपमाणं विदिसंतकम्मं जादं । तदो अणंताणुबंधीचदुक्कट्ठिदिखंडयपमाणं वि' हिदिसंतस्स संखेज्जा भागा । सेसाणं कम्माणं द्विदिखंडगो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो चेव । एवं विदिखंडयसहस्सेसु गदेसु दूरावकिट्टीसण्णिदे हिदिसंतकम्मे अवसेसे तदो पहुडि सेसस्स असंखेज्जे भागे हणदि । सत्त्वसे और स्थितिबन्धसे अपूर्वकरणके अन्तिम समयसम्बन्धी स्थितिसत्त्व और स्थितिबन्ध संख्यातगुणित हीन होते हैं। किन्तु अपूर्वकरणके प्रथम समयसम्बन्धी अनुभागसत्त्वसे अपूर्वकरणका अन्तिम समयसम्बन्धी अनुभागसत्त्व अनन्तगुणित हीन होता है। ___ अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें अन्य स्थितिबन्ध, अन्य स्थितिकांडक, अन्य अनुभागकांडक और अन्य गुणश्रेणी एक साथ आरम्भ की । इस प्रकार अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर विशेष घातसे घात किया जाता हुआ अनन्तानुबन्धी-चतुष्कका स्थितिसत्व असंज्ञी पंचेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान हो गया। इसके पश्चात् सहस्रों स्थितिकांडकोंके व्यतीत होनेपर अनन्तानुबन्धी-चतुष्कका स्थितिसत्त्व धके समान हो गया। इस प्रकार क्रमशः त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवोंके स्थितिवन्धके समान होकर पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्त्व हो गया। तब अनन्तानुबन्धी-चतुष्कके स्थितिकांडकका प्रमाण भी स्थितिसत्त्वके संख्यात बहुभाग होता है, और शेष कर्मोंका स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भाग ही है। इस प्रकार सहस्रों स्थितिकांडकोंके व्यतीत होने पर दूरापकृष्टि संशावाले स्थितिसत्त्वके अवशेष रहने पर वहांसे शेष स्थितिसत्त्वके असंख्यात भागोंका घात करता है। विशेपार्थ-अनिवृत्तिकरणके काल में स्थिातकाण्डकघातके द्वारा अनन्तानुबन्धी व दर्शनमोहनीय कर्मोंके स्थितिसत्त्वके चार पर्व या विभाग होते हैं। पहले पर्वमें पृथक्त्व लाख सागर, दूसरेंमें पल्यमात्र, तीसरे में पत्यके संख्यातसे लेकर असंख्यातवें भाग और प्रतिषु ' -चदुक्कहिदि वि खंडयपमाणं' इति पाठः । २ का दूरापकृष्टिनर्नामेति चेदुच्यते-पल्ये उत्कृष्टसंख्यातेन भक्ते यल्लब्ध तस्मादेकैकहान्या जघन्यपरिमितासंख्यातेन भक्ते पल्ये यल्लब्धं तस्मादेकोत्तरवृद्भया यावन्तो विकल्पास्तावन्तो दुरापकृष्टिभेदाः। तेषु कश्चिदेव विकस्पो। जिनदृष्टभावोऽस्मिन्नवसरे दूरापकृष्टिसंज्ञितो वेदितव्यः। लब्धि १२० टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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