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२४८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-८, १२. कारणलेस्सापरिणामाणं तत्थ विरोहाभावा । दंसणमोहक्खवणविधी एत्थ किण्ण परूविदा ? ण, पढमसम्मत्तुप्पायणविधीदो तिण्णिकरणादिकिरियाहि दसणमोहक्खवणविधीए भेदाभावेण तत्तो चेव अवगमादो । तम्हा परूविदा चेव । अध कोइ विसेसो अस्थि सो वि वक्खाणादो अवगम्मदे ।
तदो दसणमोहक्खवणगयविसेसपरूत्रणा कीरदे । तं जधा- तत्थ ताव दंसणमोहणीयं खतो पढममणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएदि अधापवत्तापुव्व-अणियट्टिकरणाणि काऊण । एदेसिं करणाणं लक्खणाणि जधा पढमसम्मत्तुप्पत्तीए तिण्हं करणाणं लक्खणाणि परविदाणि तधा परूवेदव्याणि । अधापवत्तकरणे हिदिघादो अणुभागघादो गुणसेडी गुणसंकमो च णत्थि । केवलमणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झंतो गच्छदि जाव अधापवत्तकरणद्धाए चरिमसमओ त्ति । णवरि अण्णं द्विदि बंधतो पुघिल्लट्ठिदिबंधादो पलिदो
कारणभूत लेश्या परिणामोंके वहां होने में कोई विरोध नहीं है ।
विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरणके अन्त समयमें सम्यक्त्वमोहनीयकी अन्तिम फालिके द्रव्यको नीचेके निपेकोंमें क्षेपण करनेसे अन्तर्मुहूर्तकाल तक जीव कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है।
शंका-दर्शनमोहके क्षपणकी विधि यहांपर क्यों नहीं कही ?
समाधान -नहीं, क्योंकि, प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पादन करनेवाली विधिसे तीनों करण आदि क्रियाओंके साथ दर्शनमोहकी क्षपण-विधिका कोई भेद नहीं है, इसलिए उससे ही दर्शनमोहकी क्षपण-विधिका ज्ञान हो जाता है। अत एव वह प्ररूपित की ही गई है । और जो कुछ विशेषता है वह भी व्याख्यानसे जान ली जाती है । इसलिए दर्शनमोहकी क्षपणासम्बन्धी विशेषताकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है--
दर्शनमोहनीयका क्षपण करता हुआ जीव सर्व प्रथम अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन तीन करणोंको करके अनन्तानुबन्धिचतुष्कका विसंयोजन करता है। इन करणोंके लक्षण जिस प्रकार प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें तीनों करणोंके लक्षण कहे हैं, उसी प्रकार यहां प्ररूपण करना चाहिए । अधःप्रवृत्तकरणमें स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण नहीं होता है। केवल अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ अधःप्रवृत्तकरणकालके अन्तिम समय तक चला जाता है। केवल विशेषता यह है कि अन्य स्थितिको बांधता हुआ पहलेके स्थितिबन्धकी
१ प्रतिषु 'सु' इति पाठः ।
२ पुव्वं तियरणविहिणा अणं खु अणियट्टिकरणचरिमम्हि । उदयावलिबाहिरग ठिदि विसंजोजदे णियमा। लब्धि. ११२.
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