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________________ १, ९-८, १२.] चुलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए खझ्यसम्मत्तुप्पादणं [२४७ मोहक्खवणं पट्ठवेंति त्ति वत्तव्वं, अण्णहा तइयपुढवीदो णिग्गयाणं कण्हादीणं तित्थयरत्ताणुववत्तीदो ति केसिंचि वक्खाणं । एदेण वक्खाणाभिप्पाएण दुस्सम-अइदुस्समसुसमसुसम-सुसमकालेसुप्पण्णाणं चेव दसणमोहणीयक्खवणा णत्थि, अवसेसदोसु वि कालेसुप्पण्णाणमत्थि। कुदो ? एइंदियादो आगंतूण तदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीणं दसणमोहक्खवणदंसणादो । एदं चेवेत्थ वक्खाणं पधाणं कादव्यं । णिवओ पुण चदुसु वि गदीसु गिट्ठवेदि ॥ १२ ॥ कदकरणिज्जपढमसमयप्पहुडि' उवरि णिट्ठवगो उच्चदि । सो आउअबंधवसेण चदुसु वि गदीसु उप्पज्जिय दंसणमोहणीयक्खवणं समाणेदि, तासु तासु गदीसु उप्पत्तीए दर्शनमोहनीयकर्मका क्षपण प्रारम्भ करते हैं, ऐसा कहना चाहिए, अन्यथा तीसरी पृथिवीसे निकले हुए कृष्ण आदिकोंके तीर्थकरत्व नहीं बन सकता है, ऐसा किन्हीं आचार्योंका व्याख्यान है। इस व्याख्यानके अभिप्रायसे दुःषमा, अतिदुःषमा, सुषमसुषमा और सुषमा कालोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके ही दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नहीं होती है, अवशिष्ट दोनों कालोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके दर्शनमोहकी क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर (इस अवसर्पिणीके) तीसरे कालमें उत्पन्न हुए वर्द्धनकुमार आदिकोंके दर्शनमोहकी क्षपणा देखी जाती है। यहांपर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थ-पूर्वोक्त व्याख्यानका अभिप्राय यह है कि सामान्यतः तो जीव केवल उपर्युक्त दुषम-सुषम कालमें तीर्थकर, केवली या चतुर्दशपूर्वी जिन भगवानके पादमूलमें ही दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं, किन्तु जो उसी भवमें तीर्थकर या जिन होनेवाले हैं वे तीर्थंकरादिकी अनुपस्थितिमें तथा सुषम-दुषम कालमें भी दर्शनमोहका क्षपण करते हैं, उदाहरणार्थ कृष्णादि व वर्धनकुमार। ___दर्शनमोहकी क्षपणाका निष्ठापक तो चारों ही गतियोंमें उसका निष्ठापन करता है ॥१२॥ कृतकत्यवेदक होनेके प्रथम समयसे लेकर ऊपरके समयमें दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाला जीव निष्ठापक कहलाता है । दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करनेवाला जीव कृतकृत्यवेदक होनेके पश्चात् आयु-बन्धके वशसे चारों: भी गतियोंमें उत्पन्न होकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाको सम्पूर्ण करता है, क्योंकि, उन उन गतियों में उत्पत्तिके १ षटखं. १, ५, ३ टीका. २ मिट्ठवगो तट्ठाणे विमाणभोगावणीसु धम्मे य | किदकरणिज्जो चदुसु वि गदीसु उप्पज्जदे जम्हा ॥ लन्थि. १११. ३ चरिमे फालिं दिण्णे कदकणिज्जेत्ति वेदगो होदि ॥ लब्धि. १४५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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