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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ९-८, ११.
गाणं दंसणमोहक्खवणसंभवादो । दुस्सम - ( दुस्समदुस्सम- ) सुस्समासुरसमा सुसमा सुसमादुस्समा कालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणङ्कं ' जहि जिणा ' त्ति वयणं । जहि काले जिणा संभवति तम्हि चैव खवणाए पट्टवओ' होदि, पण अण्णकालेसु । देसजिणाणं पडिसेहट्टं केवलिगहणं । जहि केवलणाणिणो अत्थि तत्थेव खत्रणा होदि, ण अण्णत्थ | तित्थयरकम्मुदयविरहिदकेवलिपडिसेहङ्कं तित्थयरगहणं । तित्थयरपादमूले दंसणमोहणीयखवणं पट्टवेंति, ण अण्णत्थेति । अथवा जिणा त्ति उत्ते चोहसपुव्यहरा घेत्तव्या, केवलि त्ति भणिदे केवलणाणिणो तित्थयरकम्मुदयविरहिदा घेत्तव्वा, तित्थयराति उत्ते तित्थयरणाम कम्मुदयजणिदअट्टमहापाडिहेर चोत्तिसदिसयसहियाणं गहणं । एदाणं तिह पि पादमूले दंसणमोहक्खवणं पट्टवेंति ति । एत्थ जिणसदस्स आवर्त्ति काऊण जिणा दंसण
दर्शनमोहका क्षपण होना संभव है ।
दुःपमा, (दुःषमदुःषमा ), सुषमासुषमा, सुषमा और सुषमादुःषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के दर्शनमोहका क्षपण निषेध करनेके लिए 'जहां जिन होते हैं ' यह वचन कहा है । जिस कालमें जिन संभव हैं उस ही कालमें दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है, अन्य कालों में नहीं ।
विशेषार्थ – अधःकरण के प्रथम समयसे लेकर जब तक जीव मिथ्यात्व और मिश्रमोहनीय प्रकृतियोंके द्रव्यका अपवर्तन करके सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रमण कराता है तब अन्तर्मुहूर्तकाल तक वह जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक कहलाता है । देशजनोंका अर्थात् श्रुतकेवली, अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानियोंका, प्रतिषेध करने के लिए सूत्र में 'केवली' इस पदका ग्रहण किया है। अर्थात् जिस काल में केवलज्ञानी होते हैं, उसी कालमें दर्शनमोहकी क्षपणा होती है, अन्य कालोंमें नहीं । तीर्थकर नामकर्मके उदयसे रहित सामान्य केवलियोंके प्रतिषेधके लिए सूत्र में ' तीर्थकर ' इस पदका ग्रहण किया है, अर्थात् तीर्थंकर के पादमूलमें ही मनुष्य दर्शनमोहनीयकर्मका क्षपण प्रारम्भ करते हैं, अन्यत्र नहीं । अथवा 'जिन' ऐसा कहनेपर चतुर्दश पूर्वधारियोंका ग्रहण करना चाहिए, 'केवली' ऐसा कहनेपर तीर्थकर नामकर्मके उदयसे रहित केवलज्ञानियोंका ग्रहण करना चाहिए, और 'तीर्थकर ' ऐसा कहनेपर तीर्थंकर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए आठ महाप्रातिहार्य और चौंतीस अतिशयोंसे सहित तीर्थंकर केवलियोंका ग्रहण करना चाहिए। इन तीनोंके पादमूलमें कर्मभूमिज मनुष्य दर्शनमोहका क्षपण प्रारम्भ करते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
यहां पर 'जिन' शब्दकी आवृत्ति करके अर्थात् दुवारा ग्रहण करके, जिन
१ अधःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयादारभ्य मिथ्यात्वमिश्रप्रकृत्योः द्रव्यमपवर्त्य सम्यक्त्वप्रकृतौ संक्रम्यते यावत्ताबदन्तर्मुहूर्तकालं दर्शनमोहक्षपणाप्रस्थापक इत्युच्यते । लब्धि, ११०. टीका.
२ प्रतिषु - चोत्तिस दिसयहियाणं ' इति पाठः ।
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