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१, ९-८, ११.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए पढमसम्मत्तुप्पादणे
[२४३ सम्मामिच्छाइट्ठी सागारो वा तहा अणागारो।
तह वंजणोग्गहम्मि दु सागारो होदि बोद्धव्यो' ॥ १६ ॥ "कदि भागे वा करेदि मिच्छत्तं' एदस्स सुत्तस्स अत्थो समत्तो । उवसामणा वा केसु व खेत्तेसु कस्स व मूले ॥ १० ॥
एदस्स पुच्छासुत्तस्स विभासा पुव्वं परूविदा, खेत्तणियमो णत्थि त्ति । कस्स व मूले त्ति उत्ते एत्थ वि णत्थि णियमो, सव्वत्थ सम्मत्तग्गहणसंभवादो।
दसणमोहणीयं कम्मं खवेदुमाढवेंतो कम्हि आढवेदि, अड्डाइजेसु दीव-समुद्देसु पण्णारसकम्मभूमीसु जम्हि जिणा केवली तित्थयरा तम्हि आढवेदि ॥ ११ ॥
दसणमोहणीयस्स कम्मस्स खवणपदेसं पुच्छिदस्स सिस्सस्स तप्पदेसपरूवणट्ठमेदं
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव साकारोपयोगी भी होता है और अनाकारोपयोगी भी होता है। किन्तु व्यंजनावग्रहमें, अर्थात् विचारपूर्वक अर्थको ग्रहण करनेकी अवस्थामें, साकारोपयोगी ही होता है, ऐसा जानना चाहिए ॥१६॥
'मिथ्यात्वकर्मको कितने भागरूप करता है' इस सूत्रका अर्थ समाप्त हुआ।
दर्शनमोहकी उपशामना किन किन क्षेत्रोंमें और किसके पासमें होती है? ॥१०॥
इस पृच्छासूत्रकी विभाषा पहले प्ररूपण की जा चुकी है कि इस विषयमें क्षेत्रका कोई नियम नहीं है। 'किसके पासमें दर्शनमोहकी उपशामना होती है,' ऐसा कहने पर इस विषयमें भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि, सर्वत्र सम्यक्त्वका ग्रहण संभव है।
दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण करनेके लिए आरम्भ करता हुआ यह जीव कहांपर आरम्भ करता है ? अढ़ाई द्वीप समुद्रोंमें स्थित पन्द्रह कर्मभूमियोंमें जहां जिस कालमें जिन, केवली और तीर्थंकर होते हैं वहां उस कालमें आरम्भ करता है ॥ ११ ॥
दर्शनमोहनीय कर्मके क्षपण करनेके प्रदेशको पूछनेवाले शिष्यके क्षपण-प्रदेश
१ जयध. अ. प. ९६२. किन्तु तत्र तह ' स्थाने ' अथ ' इति पाठः । वंजणोग्गहम्मि दु विचारपूर्वकार्थग्रहणावस्थायामित्यर्थः व्यंजनशब्दस्यार्थविचारवाचिनो ग्रहणात् । जयध. अ. प. ९६२.
२ आ-क-प्रत्योः ' कम्माणमेत्थ खइओ' इति अधिकः पाठः। ३ दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुसो । तित्थयरपायमूले केवलिसुदकेवली मूले ॥ लन्धि. ११०.
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