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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, ११. सुत्तमागयं । अड्डाइज्जेसु दीव-समुद्देसु त्ति भणिदे जंबूदीवो धादइसंडो पोक्खरद्धमिदि अड्डाइज्जा दीवा घेत्तव्वा । एदेसु चेव दीवेसु देसणमोहणीयकस्मस्स खवणमाढवेदि त्ति, णो सेसदीवेसु । कुदो ? सेसदीवहिदंजीवाणं तक्खवणसत्तीए अभावादो । लवण-कालोदइसण्णिदेसु दोसु समुद्देसु दंसणमोहणीयं कम्मं खति, णो सेससमुद्देसु, तत्थ सहकारिकारणाभावा । अड्डादिज्जसदेण समुद्दो किण्ण विसेसिदो ? ण एस दोसो ‘जहासंभवं विसेसण-विसेसियभावो' त्ति णायादो संभवाभावा अड्डाइज्जसंखाए ण समुद्दो विसेसिजदे । ण च अड्डादिज्जदीवाणं मज्झे अड्डादिज्जसमुद्दा अत्थि, विरोहादो । ण च अड्डाइज्जदीवेहितो बज्झसमुद्दे दंसणमोहणीयक्खवणं संभवदि, उवरि उच्चमाण-'जम्हि जिणा तित्थयरा' त्ति विसेसणेण पडिसिद्धत्तादो । ण माणुसुत्तरगिरिपरभाए जिणा तित्थयरा अत्थि, विरोहादो। अड्डाइज्जदीव-समुद्दह्रिदसबजीवेसु दंसणमोहक्खवणे पसंगे तप्पडिसे बतलानेके लिए यह सूत्र आया है । अढ़ाई द्वीप-समुद्रोंमें' ऐसा कहने पर 'जम्बूद्वीप, धातकीखंड और पुष्कराध, ये अढ़ाई द्वीप ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, इन अढ़ाई द्वीपोंमें ही दर्शनमोहनीय कर्मके क्षपणको आरम्भ करता है, शेष द्वीपोंमें नहीं। इसका कारण यह है कि शेष द्वीपोंमें स्थित जीवोंके दर्शनमोहनीय कर्मके क्षपण करनेकी शक्तिका अभाव होता है। लवण और कालोदक संज्ञावाले दो समुद्रों में जीव दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण करते हैं, शेष समुद्रोंमें नहीं, क्योंकि, उनमें दर्शनमोहके क्षपण करनेके सहकारी कारणोंका अभाव है। शंका-'अढ़ाई' इस विशेषण शब्दके द्वारा समुद्रको विशिष्ट क्यों नहीं किया? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, 'यथासंभव विशेषण-विशेष्यभाव होता है' इस न्यायके अनुसार तीसरे अर्ध समुद्रकी संभावनाका अभाव होनेसे 'अढ़ाई' इस संख्याके द्वारा समुद्र विशिष्ट नहीं किया गया है । और न अढ़ाई द्वीपोंके मध्यमें अढ़ाई समुद्र हैं, क्योंकि, वैसा मानने पर विरोध आता है । तथा, अढ़ाई द्वीपोंसे बाहिरी समुद्र में दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण संभव भी नहीं है, क्योंकि, आगे कहे जानेवाले 'जहां जिन, तीर्थकर संभव है ' इस विशेषणके द्वारा उसका प्रतिषेध कर दिया गया है। मानुषोत्तर पर्वतके पर भागमें जिन और तीर्थंकर नहीं होते हैं, क्योंकि, वहां उनका अस्तित्व मानने में विरोध आता है। अढाई द्वीप और समुद्रों में स्थित सर्व जीवोंमें दर्शनमोहके क्षपणका प्रसंग १ प्रतिपु -हिदि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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