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________________ २४२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-८, ९. सम्मत्तपढमलंभस्सणंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं । लंभस्स अपढमस्स दु भजिदव्वं पच्छदो होदि ॥१२॥ कम्माणि जस्स तिण्णि दु णियमा सो संकमेण भजिदव्यो । एयं जस्स दु कम्मं ण य संकमणेण सो भज्जो' ॥ १३ ॥ सम्माइट्ठी सद्दहदि पवयणं णियमसा दु उवइढें । सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा' ॥ १४ ॥ मिच्छाइट्ठी णियमा उवइ8 पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असब्भावं उवइद वा अणुवइ8 ॥ १५ ॥ अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके जो सम्यक्त्वका प्रथम वार लाभ होता है उसके अनन्तर पश्चात् मिथ्यात्वका उदय होता है । किन्तु सादि मिथ्यादृष्टि जीवके जो सम्यक्त्वका. अप्रथम, अर्थात् दूसरी, तीसरी आदि वार लाभ होता है, उसके अनन्तर पश्चात् समयमें मिथ्यात्व भजितव्य है, अर्थात् वह कदाचित् मिथ्यादृष्टि होकर वेदक अथवा उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है और कदाचित् सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है ॥१२॥ जिस जीवके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये तीन कर्म सत्तामें होते हैं, अथवा 'तु' शब्दसे मिथ्यात्व या सम्यक्त्वप्रकृतिके विना शेष दो कर्म सत्तामें होते हैं, वह नियमसे संक्रमणकी अपेक्षा भजितव्य है, अर्थात् कदाचित् दर्शनमोहका संक्रमण करनेवाला होता है और कदाचित् नहीं भी होता है। जिस जीवके एक ही कर्म सत्तामें होता है, वह संक्रमणकी अपेक्षा भजनीय नहीं है, अर्थात् वह नियमसे दर्शनमोहका असंक्रामक ही होता है ॥ १३॥ सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो नियमसे श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थको स्वयं नहीं जानता हुआ गुरुके नियोगसे असद्भूत अर्थका भी श्रद्धान कर लेता है ॥१४॥ मिथ्यादृष्टि जीव नियमसे सर्वशद्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान नहीं करता है। किन्तु असर्वज्ञोंके द्वारा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भावका, अर्थात् पदार्थके विपरीत स्वरूपका, श्रद्धान करता है ॥१५॥ १ जयध. अ. प. ९६१. किन्तु 'भजिव्वं ' इति अस्य स्थाने 'भजियवो' इति पाठः। २ जयध. अ. प. ९६१. तत्र अंतिमचरणे तु 'संकमणे सो ण भजियव्वो' इति पाठः। ३ जयध. अ. प. ९६१. विलोक्यतां षट्खं. १, १, १२ गाथा ११० । गो. जी. २७. ४ जयध. अ. प. ९६२। लब्धि. १.९। गो. जी. १८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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