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________________ १, ९-८, ९.] [२५१ चूलियाए सम्मन्नुप्पत्तीए पढमसम्मत्तुप्पादणं अंतोमुहुत्तमद्धं सव्वोवसमेण हाइ उवसंतो । तेण परं उदओ खलु तिण्णेक्कदरस्स कम्मस्स ॥ ९॥ सम्मामिच्छाइट्ठी दंसणमोहस्स बंधगो भणिदो। वेदगसम्माइट्ठी खइओ व अबंधगो होदि ॥ १० ॥ सम्मत्तपढमलंभो सम्बोवसमेण तह वियटेण । भजिदव्वो य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण ॥ ११ ॥ अन्तर्मुहूर्त काल तक सर्वोपशमसे, अर्थात् दर्शनमोहनीयके सभी भेदोंके उपशमसे, जीव उपशान्त अर्थात् उपशमसम्यग्दृष्टि रहता है। इसके पश्चात् नियमसे उसके मिथ्यात्व, सम्यगिपथ्यात्व और सम्यक्त्व, इन तीन कर्मोंमेंसे किसी एक कर्मका उदय होता है ॥९॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीय कर्मका अबंधक, अर्थात् बन्ध नहीं करनेवाला, कहा गया है। इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, तथा 'च' शब्दसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी दर्शनमोहनीय कर्मका अबन्धक होता है ॥ १०॥ अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वका प्रथम वार लाभ सर्वोपशमसे होता है। इसी प्रकार विप्रकृष्ट जीवके, अर्थात् जिसने पहले कभी सम्यक्त्वको प्राप्त किया था, किन्तु पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और वहां सम्यक्त्वप्रकृति एवं सम्यग्मिथ्यात्वकर्मकी उद्वेलना कर बहुत काल तक मिथ्यात्व-सहित परिभ्रमण कर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त किया है ऐसे जीवके, प्रथमोमशमसम्यक्त्वका लाभ भी सर्वोपशमसे होता है। किन्तु जो जीव सम्यक्त्वसे गिरकर अभीक्ष्ण अर्थात् जल्दी ही पुनः पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण करता है वह सर्वोपशम और देशोपशमसे भजनीय है । ( मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन तीन कर्मोंके उदयाभावको सर्वोपशम कहते हैं । तथा सम्यक्त्वप्रकृतिसम्बन्धी देशघाती स्पर्धकोंके उदयको देशोपशम कहते हैं) ॥११॥ १ जयध. अ. प. ९६०. किन्तु तत्र । तेण परं उदओ' इति अस्य स्थाने ' तत्तो परमृदयो' इति पाठः । लब्धि. १०२. २ जयध. अ. प. ९६०. किन्तु तत्र 'खइओ व ' इति अस्य स्थाने ' खीणो वि' इति पाठः । ३ जयध. अ. प. ९६०. तत्थ सव्वोवसमो णाम तिण्हं कम्माणमुदयाभावो । सभ्मत्तदेसघादिफदयाणमुदभो देसोवसमो त्ति भण्णदे । जयध. अ. प. ९६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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