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________________ २४०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, ९. मिच्छत्तवेदणीयं कम्म उवसामगस्स बोद्धव्वं । उवसंते आसाणे तेण परं होइ भयणिज्ज' ॥ ६ ॥ सव्वम्हि द्विदिविसेसे उवसंता तिणि होति कम्मंसा ।। एक्कम्हि य अणुभागे णियमा सव्वे विदिविसेसा ॥ ७ ॥ मिच्छत्तपच्चओ खलु बंधो उवसामयस्स बोद्धव्यो ।। उवसंते आसाणे तेण परं होदि भयणिज्जो ॥ ८ ॥ उपशामकके जब तक अन्तर प्रवेश नहीं होता है तब तक मिथ्यात्ववेदनीय कर्मका उदय जानना चाहिए । दर्शनमोहनीयके उपशान्त होनेपर, अर्थात् उपशमसम क्वके कालमें, और सासादनकालमें मिथ्यात्वकर्मका उदय नहीं रहता है। किन्तु उपशमसम्यक्त्वका काल समाप्त होनेपर मिथ्यात्वका उदय भजनीय है, अर्थात् किसीके उसका उदय होता भी है और किसीके नहीं भी होता है ॥ ६॥ तीनों कर्माश, अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये तीनों कर्म, दर्शनमोहनीयकी उपशान्त अवस्थामें सर्व स्थितिविशेषोंके साथ उपशान्त रहते हैं, अर्थात् उन तीनों कर्मोंके एक भी स्थितिका उस समय उदय नहीं रहता है । तथा एक ही अनुभागमें उन तीनों कर्माशोके सभी स्थितिविशेष अवस्थित रहते हैं, अर्थात् अन्तरसे बाहिरी अनन्तरवर्ती जघन्य स्थितिविशेषमें जो अनुभाग होता है, वही अनुभाग उससे ऊपरके समस्त स्थितिविशेषों में भी होता है, उससे भिन्न प्रकारका नहीं ॥ ७ ॥ उपशामकके प्रथमस्थितिके अन्तिम समय तक मिथ्यात्वप्रत्ययक, अर्थात् मिथ्यात्वके निमित्तसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका, बंध जानना चाहिए । (यद्यपि यहां पर असंयम, कषाय आदि अन्य भी बंधके कारण विद्यमान हैं, तथापि उनकी यहां विवक्षा नहीं की गई है, किन्तु प्रधानतासे मिथ्यात्व कर्मकी ही विवक्षाकी गई है।) दर्शनमोहकी उप अवस्थामें और सासादनसम्यक्त्वकी अवस्थामें मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नहीं होता है । इसके पश्चात् मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध भजनीय है, अर्थात् मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवोंके तन्निमित्तक बन्ध होता है, और अन्य गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवोंके तन्निभित्तक बन्ध नहीं होता है ॥ ८॥ काले पडिसेहो कदो, विसोहिकाले असुहतिलेस्सापरिणामस्स संभवाणुववत्तीदो। देवेसु पुण जहारिहं सुहलेस्सातियपरिणामो चेक, तेण तत्थ वियहिचारो । णेरइएमु वि अवट्ठिदकिण्ह-णील-काउलेस्सापरिणामेसु सुहतिलेस्साणमसंभवो चेवेत्ति ण तत्थेदं सुत्तं पयट्टदे । तदो तिरिक्ख-मणुपविषयमेवेदं सुत्तमिदि गहयव्वं । जयध. अ. प. ९५९ । यद्यपि तिर्यग्मनुष्यो वा मन्दविशुद्भिस्तथापि तेजोलेश्याया जघन्यांशे वर्तमान एवं प्रथमोपशमसम्यक्त्वप्रारंभको भवति । नरकगतौ नियताशुभलेश्यात्वेऽपि कषायाणां मन्दानुभागोदयवशेन तत्वार्थ श्रद्वानानुगुणकारणपरिणामरूपविशुद्धि विशेषसंभवस्याविरोधात् । देवगतौ सर्वोऽपि शुभलेश्य एव प्रथमोपशमसम्यक्त्वप्रारंभको भवति । लब्धि.१०१.टी. १ जयध अ. प. ९५९. २ जयध. अ. प. ९५९. तत्र सव्वम्हि हिदिविसेसे' इति स्थाने 'सबेहि द्विदिविसेसेहिं ' इति पाठः। ३ जयध. अ. प. ९६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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