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________________ २३६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९-८, ७. मिच्छत्ताणि आऊरेदि जाव गुणसंकमचरिमसमओ त्ति । तेण परं अंगुलस्स असंखेज्जदिभागपडिभागिओ विज्झादसंकमो होदि' । जाव गुणसंकमो ताव आयुगवज्जाणं कम्माणं दिघादो अणुभागघादो गुणसेडी च अत्थि । चरिमस्स अणुभाग एत्थ पणुवीसपडिगो दंडओ कादव्वो । तं जधा— खंडयस्स उक्कीरणद्धा थोवा | अपुव्वकरणस्स पढमसमए अणुभागखंडय - उक्कीरणद्धा विसेसाहिया । अणियट्टिस्स चरिमट्ठिदिबंधगद्धा चरिमट्ठिदिखंडय - उक्कीरणद्धा च दो वितुल्ला संखेज्जगुणा । अंतरकरणद्धा तत्थतणडिदिबंधगंडा डिदिखंडयउक्कीरणद्धा च तिणि वि तुल्ला विसेसाहिया । अपुव्यकरणस्स पढमट्ठिदिखंडयस्स उक्कीरणद्धा ट्ठिदिबंधगद्धा च दो वि तुल्ला बिसेसाहिया । गुणसंकमेण सम्मत्त-सम्मामिच्छात्ताणं पूरणकालो संखेज्जगुणो । पढमसमयउवसामयस्स गुणसेडी मिथ्यात्व कर्मको पूरित करता है जब तक कि गुणसंक्रमणकालका अन्तिम समय प्राप्त होता है । इस गुणसंक्रमणके पश्चात् सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागका प्रतिभागी, अर्थात् सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाणवाला, विध्यातसंक्रमण होता है। जब तक गुणसंक्रमण होता है, तब तक आयुकर्मको छोड़कर शेष कर्मोंका स्थितित्रात, अनुभागधात और गुणश्रेणी होती रहती है । इस प्रकरण में यह पच्चीस प्रतिक या पदवाला अल्पबहुत्व-दंडक कहने योग्य है । वह इस प्रकार है -- चरम, अर्थात् मिथ्यात्व की प्रथम स्थितिके अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में होनवाले, अनुभागकांडक उत्कीरणका काल ( यद्यपि अन्तर्मुहूर्तमान है, तथापि आगे कहे जानेवाले कालोंकी अपेक्षा) अल्प है (१) । इससे अपूर्वकरण के प्रथम समय में होनेवाले अनुभागकांडके उत्कीरणका काल विशेष अधिक है ( २ ) । इससे अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय में संभव स्थितिबंधका काल और अन्तिम स्थितिकांडके उत्कीरणका काल, ये दोनों परस्पर समान होते हुए भी संख्यातगुणित हैं ( ३-४ ) । इससे अन्तरकरणका काल, वहांपर संभव स्थितिबन्धका काल, तथा स्थितिकांडकके उत्कीरणका काल, ये तीनों परस्पर समान होते हुए भी विशेष अधिक हैं (५-७ ) ? इससे अपूर्वकरण के प्रथम समय में होनेवाले स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और स्थितिबंधका काल, ये दोनों परस्पर समान होते हुए भी विशेष अधिक हैं ( ७-८ ) । इससे गुणसंक्रमण के द्वारा सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वके पूरनेका काल संख्यातगुणा है (९) । इससे प्रथम समयवर्ती उपशामकका १ पदमादो गुणसंकमचरिमो त्तिय सम्म मिस्ससम्मिस्से । अहिगदिणाऽसंखगुणो विज्झादो संक्रमो तत्तो ॥ लब्धि ९१. १२ विदियकरणादिमादो गुणसंकमपूरणस्स कालो त्ति । वोच्छं रसखंडकीरणकालादीणमप्पबहुं ॥ लब्धि. ९२. ३ अंतिमरसखंडुक्कीरणकालादो दु पढमओ अहिओ । तत्तो संखेज्जगुणो चरिमट्ठिदिखंडहदिकालो ॥ लब्धि. ९३. ४ अ-आप्रत्योः 'गिरि', कप्रतौ ' रिगि', मप्रतौ ' तिहि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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