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________________ १, ९–८, ७. ] चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए पढमसम्मत्तुप्पादणं [ २३५ पत्तघादं मिच्छत्तं अणुभागेण पुणो वि घादिय तिण्णि भागे करेदि । कुदो ? ' मिच्छताणुभागादो सम्मामिच्छत्ताणुभागो अनंतगुणहीणो, तत्तो सम्मत्ताणुभागो अनंतगुणहीण' ति पाहुडत्ते णिद्दित्तादो ।ण च उवसमसम्मत्तकालब्भतेरे अणताणुबंधीविसंजोयणकिरियाए विणा मिच्छत्तस्स विदिघादो वा अणुभागवादो वा अत्थि, तोवदेसाभावा । तेण ओहट्टेदुणेत्ति उत्ते खंडयघादेण विणा मिच्छत्ताणुभागं घादिय सम्मत्त सम्मामिच्छत्तअणुभागायारेण परिणामिय पढमसम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए चैव तिष्णि कम्मंसे उप्पादेदि' । पढमसमय उवसमसम्माइट्ठी मिच्छत्तादो पदेसग्गं घेत्तृण सम्मामिच्छत्ते बहुगं देदि, तत्तो असंखेज्जगुणहीणं सम्मत्ते देदि । पढमसमए सम्मामिच्छत्ते दिण्णपदेसेहिंतो विदियसमए सम्मत्ते असंखेज्जगुणे देदि । तम्हि चेव समए सम्मत्तम्हि छुद्धपदेसेहिंतो सम्मामिच्छत्ते असंखेज्जगुणे देदि । एवं अंतोमुहुत्तकालं गुणसेडीए सम्मत्त सम्मा अनुभाग और प्रदेशों की अपेक्षा घातको प्राप्त मिथ्यात्वकर्मको अनुभागके द्वारा पुनरपि घात कर उसके तीन भाग करता है, यह प्ररूपित किया गया है । इसका कारण यह है कि 'मिथ्यात्वकर्मके अनुभागसे सम्यग्मिथ्यात्वकर्मका अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है, और सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके अनुभाग से सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है,' ऐसा प्राभृतसूत्र अर्थात् कषायप्राभृतके चूर्णिसूत्रोंमें निर्देश किया गया है । तथा, उपशमसम्यक्त्वसम्बन्धी कालके भीतर अनन्तानुबन्धीकषायकी विसंयोजनरूप क्रियाके विना मिथ्यात्वकर्मका स्थितिकांडकघात और अनुभाग कांडकघात नहीं होता है, क्योंकि, उस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है । इसलिए ' अन्तरकरण करके ' ऐसा कहने पर कांडकघात विना मिथ्यात्वकर्मके अनुभागको घात कर, और उसे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके अनुभागरूप आकारसे परिणमाकर प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समय में ही मिध्यात्वरूप एक कर्मके तीन कर्माश, अर्थात् भेद या खंड उत्पन्न करता है । प्रथम समयवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व से प्रदेशाग्र अर्थात् उदीर - णाको प्राप्त कर्म - प्रदेशोंको लेकर उनका बहुभाग सम्यग्मिथ्यात्व में देता है, और उससे असंख्यात गुणा हीन कर्म-प्रदेशाग्र सम्यक्त्वप्रकृति में देता है । प्रथम समय में सम्यग्मिध्यात्व में दिये गये प्रदेशोंसे, अर्थात् उनकी अपेक्षा, द्वितीय समय में सम्यक्त्वप्रकृतिमें असंख्यातगुणित प्रदेशोंको देता है । और उसी ही समय में, अर्थात् दूसरे ही समय में, सम्यक्त्वप्रकृति में दिये गये प्रदेशोंकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व में असंख्यातगुणित प्रदेशोको देता है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणश्रेणीके द्वारा सम्यक्त्व और सम्य १ अंतरपदमं पत्ते उवसमणामो हु तत्थ मिच्छत्तं । ठिदिरसखंडेण विणा उवइडाद्रूण कुणदि तदा ॥ मिच्छत्त मिस्ससम्म सरूवेण य तत्चिधा य दव्वादो । सत्तादो य असंखाणंतेण य हांति भजियकमा । लब्धि, ८९-९०, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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