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________________ २३४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९–८, ७. णिक्खेवाभावा' । साणं आयुगवज्जाणं गुणसेडी अत्थि । पडिआवलियादो चेव उदीरणा । पडिआवलियाए सेसाए मिच्छत्तस्स उदीरणा णत्थि । तदो चरिमसमयमिच्छाइट्ठी जादो | अधवा देण सुतेण अंतरघादो चैव परुविदो, किंतु द्विदिघादो अणुभागघादो गुणसे ढकमेण पदेसघादो अंतरट्ठदणं घादो च परूविदो । पुव्विलसुतं पिण देसामासिय, द्विदिबंधोसरणाए एक्किस्से चैव परूवणादो । लब्भदित्ति जं पदं तस्स अत्थो समत्तो । 'कदि भाए वा करेदि मिच्छत्तं' एदिस्से पुच्छाए अत्थपरूवणट्ठमुत्तरमुत्तं भणदिओहदण मिच्छत्तं तिष्णि भागं करेदि सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ॥ ७ ॥ एदेण सुत्ते मिच्छत्तपढमट्ठिदिं गालिय सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमय पहुडि उवरिमकालम्मि जो वावारो सो परुविदो | ओहट्टेदुणेत्ति पुव्वं द्विदि-अणुभाग - पदे से हि प्रदेशोंका निक्षेप नहीं होता है । किन्तु आयुकर्मको छोड़कर शेष समस्त कर्मों की गुणश्रेणी होती रहती है । उस समय प्रत्यावलीसे ही मिथ्यात्वकर्मकी उदीरणा होती रहती है । किन्तु प्रत्यालीके शेष रह जानेपर मिथ्यात्वकर्मकी उदीरणा नहीं होती है। तब यह जीव चरमसमयवर्त्ती मिथ्यादृष्टि हुआ कहलाता है । अथवा, इस सूत्र के द्वारा केवल अन्तरघात ही नहीं प्ररूपण किया गया है, किन्तु स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणीके क्रमसे प्रदेशघात और अन्तर- स्थितियोंका घात भी प्ररूपण किया गया है । तथा, इससे पहलेका सूत्र भी देशामर्शक नहीं है, क्योंकि वह केवल एक स्थितिबन्धापसरणका ही प्ररूपण करता है । इस प्रकार 'सम्यक्त्त्वको प्राप्त करता है' यह जो पद है उसका अर्थ समाप्त हुआ । अब 'मिथ्यात्वकर्मको कितने भागरूप करता है ' इस प्रश्नका अर्थ प्ररूपण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं अन्तरकरण करके मिथ्यात्वकर्मके तीन भाग करता है - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ॥ ७ ॥ इस सूत्र के द्वारा मिथ्यात्व की प्रथमस्थितिको गलाकर सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समय से लेकर उपरिम कालमें जो व्यापार, अर्थात् कार्य-विशेष, होता है, वह प्ररूपण किया गया है । 'अन्तरकरण करके ' इस पदके द्वारा पहलेसे ही स्थिति, १ अंतरकडपढमादो पडिसमयमसंखगुणिदमुवसमदि । गुणसंकमेण दंसणमोहणियं जाव पदमठिदी ॥ पढमट्ठिदिया व लिपडिआवलिसेसेसु णत्थि आगाला । पडिआगाला मिच्छत्तस्स य गुणसेदिकरणं पि ॥ लब्धि. ८७-८८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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