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________________ १, ९-८, ६. चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए पढमसम्मत्तुप्पादणं . [२३३ तदो पहुडि उवसामओ त्ति भण्णदि । जदि एवं तो पुचमुवसामयत्तस्स' अभावो पावेदि' ? पुव्वं पि उवसामओ चेव, किंतु मज्झदीवयं कादण सिस्सपडिबोहणटुं एसो दसणमोहणीयउवसामओ त्ति जइवसहेण भागदं । तदो णेदं वयणं तीदभागस्स उवसामयत्तपडिसेहयं । पढमद्विदीदो विदियविदीदो च ताव आगाल-पडिआगाला जाव आवलिया पडिआवलिया च सेसा त्ति । तदो पहुडि मिच्छत्तस्स गुणसेडी णत्थि, उदायावलियबाहिरे .......................................... अन्तरकरण समाया होनेके समयसे लेकर वह जीव ' उपशामक' कहलाता है। शंका---यदि ऐसा है, अर्थात् अन्तरकरण समाप्त होनेके पश्चात् वह जीव 'उपशामक' कहलाता है, तो इससे पूर्व, अर्थात् अधःकरणादि परिणामोंके प्रारम्भ होनेसे लेकर अन्तरकरण होने तक, उस जीवके उपशामकपनेका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान-- अन्तरकरण समाप्त होनेके पूर्व भी वह जीव उपशामक ही था, किन्तु मध्यदीपक करके शिष्योंके प्रतिबोधनार्थ · यह दर्शनमोहनीयकर्मका उपशामक है' इस प्रकार यतिवृषभाचार्यने ( अपनी कसायपाहुडचूर्णिके उपशमना अधिकारमें) कहा है । इसलिए यह वचन अतीत भागके उपशामकताका प्रतिषेध नहीं करता है। प्रथमस्थितिसे और द्वितीयस्थितिसे तब तक आगाल और प्रत्यागाल होते रहते हैं, जब तक कि आवली और प्रत्यावलीमात्र काल शेष रह जाता है । विशेषार्थ--प्रशमस्थिति और द्वितीयस्थितिकी परिभाषा पहले दी जा चुकी है। अपकर्षणके निमित्तसे द्वितीयस्थितिके कर्म प्रदेशोंका प्रथमस्थितिमें आना आगाल कहलाता है । उत्कर्पणके निमित्तसे प्रथमस्थितिके कर्म-प्रदेशोंका द्वितीयस्थितिमें जाना प्रत्यागाल कहलाता है। 'आवली' ऐसा सामान्यसे कहने पर भी प्रकरणवश उसका अर्थ उदयावली लेना चाहिए। तथा, उश्यावलीसे ऊपरके आवलीप्रमाण कालको द्वितीयावली या प्रत्यावली कहते हैं। जब अन्तरकरण करनेके पश्चात् मिथ्यात्वकी स्थिति आवलि-प्रत्यावलीमात्र रह जाती है, तब आगाल-प्रत्यागालरूप कार्य बन्द हो जाते हैं। इसके पश्चात् , अर्थात् आवलि-प्रत्यावलीमात्र काल शेष रहने के समयसे लेकर, मिथ्यात्वकी गुणश्रेणी नहीं होती है, क्योंकि, उस समयमे उदयावलीसे बाहिर कर्म १ प्रतिषु ' -सामयत्तरिस' इति पाठः । २ प्रतिषु 'पादेदि' इति पाठः । ३ आगालभागालो, विदियहिदिपदेसाणं पढमहिदीए ओकड्डणावसेणागमणमिदि वुत्तं होइ । प्रत्यागलनं प्रत्यागालः, पढमहिदिपदेसाणं विदियहिदीए उक्कड्डणावसेण गमणमिदि भणिदं होइ । तदो पदम-विदियट्ठिदिपदेसाणमुक्कडुणोकडणावसेण परोप्परविसयसंकमो आगाल-पडिआगालो त्ति घेत्तव्वो। जयध. अ. प. ९५४. ४ आवलिया त्ति वुत्ते उदयावलिया घेत्तव्वा । पडिआवलिया त्ति एदेण वि उदयावलियादो उबरिमविदियावलिया गहेयव्या । जयध. अ. प. ९५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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