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________________ २३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, ६. पढमसमए अण्णं डिदिखंडयं अण्णमणुभागखंडयं च आगाएदि, अण्णं द्विदिबंधं च आढवेदि । जत्तिओ द्विदिबंधकालो तत्तिएण कालेण अंतरं करेमाणो गुणसेढीणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेज्जदिभागं खंडेदि । गुणसेढीसीसयादो संखेज्जगुणाओ उवरिमविदीओ खंडेदि', अंतरÉ तत्थुक्किण्णपदेसग्गं विदियट्टिदीए' आवाधूणियाए बंधे उक्कड्डदि, पढमद्विदीए च देदि, अंतरहिदीसु हंद णियमा ण देदि ति । एवमंतरमुक्कीरमाणमुक्किण्णं । __ अन्तरकरणके प्रथम समयमें अन्य स्थितिकांडक और अन्य अनुभागकांडकको आरम्भ करता है, तथा अन्य स्थितिवन्ध आरम्भ करता है। जितना स्थितिवन्धका काल है, उतने कालके द्वारा अन्तरको करता हुआ गुणश्रेणीनिक्षेपके अनाग्रसे, अर्थात् गुणश्रेणीशीर्षसे लेकर नाचे संख्यातवें भाग प्रदेशानको खंडित करता है । गुणश्रेणीशीर्षसे ऊपर संख्यातगुणी उपरिम स्थितियोंको खंडित करता है, तथा अन्तरके लिए वहांपर उत्कीर्ण किए गए प्रदेशाग्रको (लेकर बन्धमें, अर्थात् उस समय बंधनेवाले मिथ्यात्वकर्ममें, उसकी आवाधाकाल हीन द्वितीयस्थितिमें स्थापित करता है और प्रथमस्थितिमें देता है, किन्तु अन्तरकालसम्बन्धी स्थितियों में निश्चयतः नहीं देता है। इस प्रकार किया जानेवाला अन्तर किया गया, अर्थात् अन्तरकरणका कार्य सम्पन्न हुआ। १ संखेज्जदिमे सेसे दंसणमोहस्स अंतर कुणइ । अण्णं ठिदिरसखंडं अण्णं ठिदिबंधणं तत्थ ॥ लब्धि. ८४. २ प्रतिषु — गुणसेढाविसयादो' इति पाठः । ३ जा तम्हि टिदिबंधगद्धा तत्तिएण कालेण करेमाणो गुणसेढिणिक्खवस्स अग्गग्गादो संखेज्जदिभागं खंडेदि । एदेण सुत्तेण अंतरकरणं करमाणस्स कालपमाणमंतरट्ठमागाइदविदीर्ण पमाणावहारणं पढमट्ठिदिदीहत्तं च परूविदं होइ । xxx एत्थ गुणसेढिणिक्खेवो ति बुते जो अपुवकरणस्स पदमसमए अणियट्टिकरणद्धाहिंतो विसेसाहियायामेण णिक्खित्तो गलिदसेसरूवेत्ति कालमागदो तस्स गहणं कायव्वं । तस्स अग्गम्गमिदि भणिदे गुणसेडिसीसयस्स गहणं कायव्वं । तत्तोप्पहुडि हेट्ठा संखेज्जदिमाग खंडेदि त्ति भणिदे सयलस्स गुणसेढिआयामस्स तकालदीसमाणस्स संखेज्जदिभागभूदो जो अणियट्टिअच्छिदो उवरिमो विसेसाहियणिस्खेवो तं सबमंतरटुमागाएदि त्ति भणिदं होइ किमेत्तियं चेव अंतरदीहत्तं? ण, गुणसेढिसीसयादो उवरि अण्णाओ वि संखेज्जगुणाओ द्विदीओ घेत्तूर्णतरं करेदि । xxx तदो अणियट्टिअद्वासेसस्स संखेज्जभागमेतकालेण अंतरं करेमाणो अतरकरणद्धादो संखेज्जगुण मिच्छतस्स पढमहिदिं परिसेसिय पुणो अणियट्टिकरणद्वादो उवरिमविसेसाहियगुणसेटिणिक्खेवेण सह ततो संखेज्जगुणाओ अण्णाओ वि द्विदीओ घेत्तणंतरमेसो करेदि त्ति सिद्धो मुत्तस्स समुदायत्थो । जयध. अ. प. ९५३. ४-५ अन्तरकरणचाधस्तनी स्थिति प्रथमा स्थितिरित्युच्यते । उपरितनी तु द्वितीया। कर्मप्र.२६०. ६ एयहिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरस्स णिप्पत्ती । अतोमुहुत्तमेत्तं अंतरकरणस्स अद्धाणं ॥ गुणसेढीए सीसं तत्तो संखगुण उवरिमठिदि च । हेटवरिम्हि य आवाहुझिय-बंधाम्ह संथुहीद । लब्धि. ८५.८५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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