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१, ९-८, ५.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए पढमसम्मन्नुप्पादणं
[ २२३ अणंतगुणं बंधदि । एन्थ द्विदिबंधकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो । पुण्णे पुण्णे' हिदिबंधे पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेणूणियमणं द्विदि बंधदि । एवं संखेज्जसहस्सवारं द्विदिबंधोसरणेसु कदेसु अधापवत्तकरणद्धा समप्पदि।
____ अधापवत्तकरणपढमसमयद्विदिबंधादो चरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो । एत्थेव पढमसम्मत्त-संजमासंजमाभिमुहस्स विदिबंधो संखेज्जगुणहीणो, पढमसम्मत्तसंजमाभिमुहस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयहिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो' । सुत्ते संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि ऊणियं द्विदि बंधदि त्ति तिसु वि करणेसु सामण्णेण भणिदं, एसो विसेसो सुत्ते अणिहिट्ठो कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो। एवमधापवत्तकरणस्स कज्जपरूवणं कदं ।।
खांड आदिरूप चतुःस्थानीय अनुभागको प्रतिसमय अनन्तगुणित बांधता है।
यहां, अर्थात् अधःप्रवृत्तकरणकालमें, स्थितिबन्धका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है। एक एक स्थितिबन्धकालके पूर्ण होनेपर पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन अन्य स्थितिको बांधता है । (विशेषके लिए देखो इसी भागके पृ० १३५ का विशेषार्थ)। इस प्रकार संख्यात सहस्त्र वार स्थितिवन्धापसरणोंके करने पर अधःप्रवृत्तकरणका काल समाप्त हो जाता है।
अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसम्बन्धी स्थितिबन्धसे उसीका अन्तिम समयसम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है । यहां पर ही, अर्थात् अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें, प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके जो स्थितिबन्ध होता है, उससे प्रथमसम्यक्त्वसहित संयमासंयमके अभिमुख जीवका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। इससे प्रथमसम्यक्त्वसहित सकलसंयमके अभिमुख जीवका अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयसम्बन्धी स्थितिवन्ध संख्यातगुणा हीन होता है।
शंका--सूत्रमें, 'संख्यात हजार सागरोपमोसे हीन स्थितिको बांधता है' यह वाक्य तीनों ही करणों में सामान्यसे कहा है, फिर सूत्र में अनिर्दिष्ट यह उपर्युक्त विशेष कैसे जाना जाता है ?
समाधान-सूत्रमें अनिर्दिष्ट वह उपर्युक्त कथन आचार्य-परम्पराके द्वारा आये हुए उपदेशसे जाना जाता है ।
इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके कार्योंका निरूपण किया।
१ सस्थाणमसत्थाणं चउविट्ठाणं रसं च बंधदि हु। पडिसमयमणंतेण य गुणभजियकमंतु रसबंधे ॥लब्धि.३०, २ प्रतिषु 'पुणो पुणो' इति पाठः। ३ पल्लस्स संखभागं मुहत्तअंतेण उपरदे बंधे। संखेज्जसहस्साणि य अधापवत्तम्मि ओसरणा॥ लब्धि.३९.
४ आदिमकरणद्वाए पढमहिदिबंधदा दु चरिमम्हि । संखेज्जगुणविहीणो ठिदिबंधो होइ णियमेण । तच्चरिमे ठिदिबंधो आदिमसम्मेण देससयलजमं । पडिवज्जमाणगस्स वि संखेज्जगुणेण हीणकमो॥ लब्धि. ४०.४१.
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