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________________ २२२ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९-८, ५. विदियसमयविसोही अनंतगुणा । तत्तो तदियसमयविसोही अजहण्णुक्कस्सा अनंतगुणा । एवं यव्वं जाव अणियट्टीकरणद्धाए चरिमसमओ ति । एगसमए वट्टंताणं जीवाणं परिणामेहिण विज्जदे णियट्टी णिव्वित्ती जत्थ ते अणियही परिणामा' । एवमणियट्टीकरणस्स लक्खणं गदं । दाहि विसोहीहि परिणदो जीवो जाणि कज्जाणि करेदि तप्पदुप्पायणटुमुत्तरसुत्तं भणदि एदेसिं चैव सव्वकम्माणं जाधे अंतोकोडाकोडिद्रिर्दि ठवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि ऊणियं ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि ॥ ५ ॥ अध पत्करणे तावदिखंडगो वा अणुभागखंडगो वा गुणसेडी वा गुणसंकमो वात् । कुदो ! एदेसिं परिणामाणं पुव्युत्तचउब्विहकज्जुप्पायणसत्तीए अभावादो । केवलमणं गुणा विसोहीए पडिसमयं विसुज्झतो अप्पसत्थाणं कम्माणं वेट्ठाणियमणुभागं समयं पडि अनंतगुणहीणं बंधदि, पसत्थाणं कम्माणमणुभागं चदुट्ठाणियं समयं पडि अनन्तगुणित है । उससे तृतीय समयकी विशुद्धि अजघन्योत्कृष्ट अनन्तगुणित है । इस प्रकार यह क्रम अनिवृत्तिकरणकालके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए | एक समय में वर्त्तमान जीवोंके परिणामोंकी अपेक्षा निवृत्ति या विभिन्नता जहां पर नहीं होती है वे परिणाम अनिवृत्तिकरण कहलाते हैं । इस प्रकार अनिवृत्तिकरणका लक्षण कहा । इन उपर्युक्त तीन प्रकारकी विशुद्धियोंसे परिणत जीव जिन कार्योंको करता है, उनका प्रतिपादन करने के लिए आचार्य उत्तर सूत्र कहते हैं - - जिस समय इन ही सर्व कर्मोंकी संख्यात हजार सागरोपमोंसे हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण स्थितिको स्थापित करता है, उस समय यह जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है ॥ ५ ॥ अधःप्रवृत्तकरण में स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण नहीं होता है, क्योंकि, इन अधःप्रवृत्त परिणामोंके पूर्वोक्त चतुर्विध कार्यों के उत्पादन करनेकी शक्तिका अभाव है । केवल अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमय विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ यह जीव अप्रशस्त कर्मोंके द्विःस्थानीय, अर्थात् निम्ब और कांजीररूप अनुभागको समय समयके प्रति अनन्तगुणित हीन बांधता है, और प्रशस्त कर्मोंके गुड़, १ एकम्हि कालसमये संठाणादीहिं जह णिवति । णणिवद्वंति तहा वि य परिणामेहिं मिहो जेहिं ॥ गो. जी. ५६. Jain Education International २ गुणसेढी गुणसंक्रम ठिदिरसखंड च णत्थि पदमम्हि । पडिसमयमणंतगुणं विसोहिवड्डीहिं वदि हु ॥ लब्धि. ३७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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