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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९-८, ५. अपुव्यकरणस्स पढमोट्ठिदिखंडओ जहण्णगो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, उक्कस्सओ सागरोवमपुधत्तमेत्तो आगाइदो' । अधापवत्तकरणचरिमसमयट्ठिदिबंधादो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणओ ट्ठिदिबंधो ताधे चेव आढत्तो आयुगवज्जाणं सव्वकम्माणं ट्ठिदिखंडओ होदि । द्विदिबंधो पुण बज्झमाणपयडीणं चेव । अपुव्वकरणपढमसमए चेव गुणसेडी वि आढत्ता । तं जधा - उदयपयडीणमुदयावलियबाहिरा - दिदिणं पदेसग्गमोकङ्कणभागहारेण खंडिदेयखंड असंखेज्जलोगेण भाजिदेगभागं घेत्तूण उद बहुगं देदि । विदियसमए विसेसहीणं देदि । एवं विसेसहीणं विसेसहीणं देदि जाव उदयावलियचरिमसमओ ति । विसेसो पुण वेगुणहाणिपडिभागिओं । एस कमो उदयपडणं चेव, ण सेसाणं, तेसिमुदयावलियन्तरे पडमाणपदे सग्गाभावा । उदइलाणमणुदइल्लाणं च पयडीणं पदेसग्गमुदयावलियबाहिरट्ठिदीसु द्विदमोकड्डुण २२४ ] अपूर्वकरणका प्रथम जघन्य स्थितिखंड पल्योपमका संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट स्थितिखंड सागरोपमपृथक्त्वमात्र ग्रहण किया है । अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयवाले स्थितिबन्धसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन स्थितिबन्ध उस कालमें, अर्थात् अपूर्वकरणके प्रथम समयमें, ही आरम्भ किया । यह स्थितिखंड आयुकर्मको छोड़कर शेष समस्त कर्मोंका होता है । किन्तु स्थितिबन्ध बंधनेवाली प्रकृतियोंका ही होता है । अपूर्वकरणके प्रथम समय में ही गुणश्रेणी भी प्रारम्भ की । वह इस प्रकार हैउदयमें आई हुई प्रकृतियोंकी उदयावलीसे बाहिर स्थित स्थितियोंके प्रदेशात्रको अपकर्षणभागहारके द्वारा खंडित करके एक खंडको असंख्यात लोकसे भाजित करके एक भागको ग्रहण कर उदयमें बहुत प्रदेशायको देता है। दूसरे समय में विशेष हीन प्रदेशाको देता है । (यहां सर्वत्र भागहारका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवां भाग है | ) इस प्रकार उदयावलीके अन्तिम समय तक विशेष हीन देता हुआ चला जाता है । यहां विशेषका प्रमाण दो गुणहानिका प्रतिभागी है । यह क्रम उदयमें आई हुई प्रकृतियोंका ही है, शेष प्रकृतियोंका नहीं, क्योंकि, उनके उदयावलीके भीतर आनेवाले प्रदेशाग्रोंका अभाव है । उदयमें आई हुई और उदयमें नहीं आई हुई प्रकृतियोंके प्रदेशाग्रको तथा उदयावली बाहिरकी स्थितियों में स्थित प्रदेशाग्रको अपकर्षण भागहारके द्वारा खंडित १ पढमं अवरवरट्ठिदिखंडं पट्टस्स संखभागं तु । सायरपुधत्तमेतं इदि संखसहस्सखंडाणि ॥ लब्धि. ७७. २ आउगवज्जाणं ठिदिघादो पढमादु चरिमठिदिसत्तो । ठिदिबंधो य अपुव्वो होदि हु संखेज्जगुणहीणो ॥ लब्धि. ७८. ३ उदयाणमावलिम्हि य उभयाणं बाहिरम्मि खिवणटुं । लोयाणमसंखेज्जो कमसो उक्कट्टणो हारो ॥ उकट्टिदइगिभागे पक्कासंखेण भाजिदे तत्थ । बहुभागमिदं दव्वं उवरिहरिदासु णिविखवदि ॥ सेसगभागे मजिदे असंखलोगेण तत्थ बहुभागं । गुणसेढीए सिंचदि सेसेगं च उदयहि ॥ लब्धि ६८-७०. ४ प्रतिषु ' पडिभागीदो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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