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________________ [ २१९ १, ९-८, ४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए अधापवत्तकरणं कमेण णेदमाओ जाव अधापवत्तकरणस्स चरिमसमयउक्कस्सविसोहि ति । एवमधापवत्तकरणस्स लक्खणं परूविदं । ............. गुणित क्रमसे अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयसम्बन्धी उत्कृष्ट विशुद्धि प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण निरूपण किया। _ विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरणके स्वरूपको और उसमें बतलाए गये अल्पबहुत्वको इस प्रकार समझना चाहिए - दो जीव एक साथ अधःकरणपरिणामको प्राप्त हुए। उनमें एक तो सर्वजघन्य विशुद्धिके साथ अधःकरणको प्राप्त हुआ, और दूसरा सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिके साथ । प्रथम जीवके प्रथम समयमें परिणामोंकी विशुद्धि सबसे मन्द या अल्प है । इससे दूसरे समयमें उसके जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणित है। इससे तीसरे समयमें उसके जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणित है। यह क्रम तव तक जारी रहेगा जब तक कि अधःप्रवृत्तकरणका संख्यातवां भाग, अर्थात् निर्वर्गणाकांडकका अन्तिम समय, न प्राप्त हो जाय । इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके संख्यातवें भागको प्राप्त प्रथम जीवके जो विशुद्धि होगी, उससे अनन्तगुणी विशुद्धि उस दूसरे जीवके प्रथम समयमें होगी, जो कि उत्कृष्ट विशुद्धिके साथ अधःकरणको प्राप्त हुआ था। इस दूसरे जीवके प्रथम समय में जितनी विशुद्धि है, उससे अनन्तगुणी विशुद्धि उस प्रथम जीवके होती है जो कि एक निर्वर्गणाकांडक या अधःप्रवृत्तकरणके संख्यातवें भागसे ऊपर जाकर दूसरे निर्वर्गणाकांडकके प्रथम समयमें जघन्य विशुद्धिसे वर्तमान है । इस प्रथम जीवके इस स्थानपर जितनी विशुद्धि है, उससे अनन्तगुणी विशुद्धि दूसरे जीवके दूसरे समयमें होगी। इससे अनन्तगुणी विशुद्धि प्रथम जीवके एक समय ऊपर चड़ने पर होगी। इस प्रकार इन दोनों जीवोंको आश्रय करके यह अनन्तगुणित विशुद्धिका क्रम अधःप्रवृत्तकरणके चर समयसम्बन्धी जघन्य विशुद्धि प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। उससे ऊपर उत्कृष्ट विशुद्धिके स्थान अनन्तगुणित क्रमसे होते हैं। इस प्रकार इस प्रथम करणमें विद्यमान जीवके परिणामोंकी विशुद्धि उत्तरोत्तर समयों में अनन्तगुणित क्रमसे बढ़ती जाती है। इसकी संदृष्टि इस प्रकार है ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज १ अधःप्रवृत्तकरणकाले निर्वर्गणाकांडकसमयमात्राः प्रतिसमयप्रथमखंडजघन्यपरिणामाः उपर्युपर्यनन्तगुणितक्रमा गच्छन्ति । ततः प्रथमनिर्वर्गणकांडकचरमसमयप्रथमखंडजघन्यपरिणामात् प्रथमसमयचरमखंडोत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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