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१, ९–८, ४. ]
चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए अधापवत्त करणं
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एवं कदे दुचरिमादिहेट्ठिमसमयाणं पढमखंडाणि मोत्तूण तेसिं विदियादिपरिणामखंडीण पुणरुत्ताणि जादाणि, चरिमसमयसव्वपरिणामखंडाणि अपुणरुत्ताणि, सव्वसमयाणं पढमपरिणामखंडेहि सह सरिसत्ताभावा' ।
दासि विसोधीणमधापवत्तलक्खणाणमधापवत्तकरणमिदि सण्णा । कुदो उवरिमपरिणामा अध हेट्ठा हेट्ठिमपरिणामेसु पवत्तंति त्ति अथापवत्तसण्णा' । कधं परिणामाणं करणसण्णा ? ण एस दोसो, असि-वासीणं व साहयतमभावविवक्खाए परिणामाणं करणवलंभादो | मिच्छादिट्टिआदीणं द्विदिवधादिपरिणामा विहेमा उवरिमेसु, उवरमा हेट्ठिमेसु अणुहरति, तेसिं अधापवत्तसण्णा किण्ण कदा ? ण, इट्ठत्तादो ।
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ऐसा करनेपर द्विचरमादि अधस्तन समयोंके प्रथम खंडोंको छोड़कर उनके द्वितीयादि परिणामखंड पुनरुक्त, अर्थात् सदृश, हो जाते हैं, और अन्तिम समयके सभी परिणामखंड अपुनरुक्त, अर्थात् असदृश, रहते हैं, क्योंकि, सभी समयोंके प्रथम परिणामखंडोंके साथ सदृशताका अभाव है ।
इन उपर्युक्त अधःप्रवृत्तलक्षणवाली विशुद्धियोंकी 'अधःप्रवृत्तकरण' यह संज्ञा है, क्योंकि, उपरितन समयवर्ती परिणाम अधः, अर्थात् अधस्तन, समयवर्ती परिणामोंमें समानताको प्राप्त होते हैं इसलिए अधःप्रवृत्त यह संज्ञा सार्थक है ।
शंका - परिणामोंकी 'करण' यह संज्ञा कैसे हुई ?
समाधान- -यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, असि (तलवार) और वासि ( वसूला ) के समान साधकतमभावकी विवक्षा में परिणामोंके करणपना पाया जाता है ।
शंका- मिथ्यादृष्टि आदि जीवोंके अधस्तन स्थितिबंधादि परिणाम उपरिम परिणामोंमें, और उपरिम स्थितिबंधादि परिणाम अधस्तन परिणामोंमें अनुकरण करते हैं, अर्थात् परस्पर समानताको प्राप्त होते हैं, इसलिए उनके परिणामोंकी ' अधःप्रवत्त' यह संज्ञा क्यों नहीं की ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, यह बात इष्ट है । अर्थात् मिथ्यादृष्टि आदिकोंके अधस्तन और उपरितन समयवर्ती परिणामोंकी पायी जानेवाली समानतामें अधःप्रवृत्तकरणका व्यवहार स्वीकार किया गया है ।
१ पदमे चरिमे समये पढमं चरिमं च खंडमसरित्थं । सेसा सरिसा सब्बे अट्ठव्वंकादिअंतगया ॥ चरिमे सच्चे खंडा दुचरिमसमओ चि अवरखंडाए । असरिसखंडाणोली अधापवत्तम्हि करणम्मि ॥ लब्धि. ४६-४७.
२ जम्हा हेट्ठिमभावा उवरिमभावेहिं सरिसगा हुंति । तम्हा पढमं करणं अधापवत्तो ति णिद्दिट्टं ॥ लब्धि. २५. ३ येन परिणामविशेषेण दर्शन मोहोपशमादिर्विवक्षितो भावः क्रियते निष्पाद्यते स परिणामविशेषः करणमित्युच्यते । जयध. अ. प. ९४६.
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