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२१४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-८, ४. जे कम्मक्खंधा महंतेसु द्विदि-अणुभागेसु अवट्ठिदा ओक्कड्डिदूग फलदाइणो कीरंति, तेसिमुदीरणा त्ति सण्णा, अपक्कपाचनस्य उदीरणाव्यपदेशात् । उदय-उदीरणादिलक्खणाई सुत्ते अणुवदिवाई कधमेत्थ परूविज्जति ? ण एस दोसो, एदस्स देसामासियत्तादो । जेणेदं सुत्तं देसामासियं तेण उत्तासेसलक्खणाणि एदेण उत्ताणि' चेव ।
'सव्वविसुद्धो' त्ति एदस्स पदस्स अत्थो उच्चदे । तं जधा- एत्थ पढमसम्मत्तं पडिवज्जतस्स अधापवत्तकरण-अपुचकरण-अणियट्टीकरणभेदेण तिविहाओ विसोहीओ होति । तत्थ अधापवत्तकरणसण्णिदविसोहीणं लक्खणं उच्चदे । तं जधा- अंतोमुहुत्तमेत्तसमयपंतिमुड्ढायारेण ठएदूण दृविय तेसिं समयाणं पाओग्गपरिणामपरूवणं कस्सामोपढमसमयपाओग्गपरिणामा असंखेज्जा लोगा, अधापवत्तकरणविदियसमयपाओग्गा वि परिणामा असंखेज्जा लोगा। एवं समयं पडि अधापवत्तपरिणामाणं पमाणपरूवणं कादव्वं जाव अधापवत्तकरणद्वाए चरिमसमओ त्ति । पढमसमयपरिणामेहिंतो विदिय
संज्ञा है । जो महान स्थिति और अनुभागोंमें अवस्थित कर्म स्कन्ध अपकर्षण करके फल देनेवाले किये जाते हैं, उन कर्म स्कन्धोंकी 'उदोरणा' यह संज्ञा है, क्योंकि, अपक्क कर्म-स्कन्धके पाचन करनेको उदीरणा कहा गया है।
शंका-सूत्रमें अनुपदिष्ट उदय और उदीरणा आदिके लक्षण यहां क्यों निरूपण किये जा रहे हैं ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यह सूत्र देशामर्शक है । चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिए कहे गये लक्षणोंके सिवाय अन्य समस्त लक्षण इसके द्वारा कहे ही गये हैं।
अब सूत्रोक्त 'सर्वविशुद्ध' इस पदका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार हैयहांपर प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके भेदसे तीन प्रकारकी विशुद्धियां होती हैं। उनमें पहले अधःप्रवृत्तकरण संज्ञावाली विशुद्धियोंका लक्षण कहते हैं । वह इस प्रकार है- अन्तर्मुहूर्तप्रमाण समयोंकी पंक्तिको ऊर्ध्व आकारसे स्थापित करके उन समयोंके प्रायोग्य परिणामोंका प्ररूपण करते हैं- अधःप्रवृत्तकरणमें प्रथम समयवर्ती जीवोंके योग्य परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण है। द्वितीय समयवर्ती जीवोंके योग्य परिणाम भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इस प्रकार समय समयके प्रति अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी परिणामों के प्रमाणका निरूपण अधःप्रवृत्तकरणकालके अन्तिम समय तक करना चाहिए । अधःप्रवृत्तकरणके
१ प्रतिषु ' उताणम ' ममती · उत्ताम' इति पाठः ।
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