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________________ १, ९-८, ४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए अधापवत्तकरणं [ २१३ णीचुच्चागोदाणमेक्कदरस्स पंचण्हमंतराइयाणं च वेदगो । जदि देवो, देवगदि-पंचिंदियजादि-वेउब्धिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससरीरसंठाण-वेउब्धियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवधाद-उस्सास-पसत्थविहायगदि-तस-बादर-पज्जत्त पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसगित्ति-णिमिण-उच्चागोद पंचंतराइयाणं वेदगो, उत्तसेससव्वपयडीणमवेदगो। जासिं पयडीणमुदओ अत्थि तासि पयडीणमेक्किस्से द्विदीए द्विदिक्खएण उदयं पविट्ठाए वेदगो, सेसाणं द्विदीणमवेदगो । जासिं पयडीणमप्पसत्थाणमुदओ अत्थि तासिं वेढाणियअणुभागस्स वेदगो । पसत्थाणं पयडीणमुदइल्लाणं चदुट्ठाणियअणुभागस्स वेदगो। उदइल्लाणं पयडीणमजहण्णाणुक्कस्सपदेसाणं वेदगो । जासिं पयडीणं वेदगो तासिं पयडिद्विदि-अणुभाग-पदेसाणमुदीरगो । ___ उदय-उदीरणाणं को विसेसो ? उच्चदे- जे कम्मक्खंधा ओकड्डुक्कड्डणादिपओगेण विणा द्विदिक्खयं पाविदूग अप्पप्पणो फलं देंति, तेसि कम्मक्खंधाणमुदओ त्ति सण्णा । निर्माणनाम, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इन दोनों से कोई एक, और पांचों अन्तराय, इन प्रकृतियोंका वेदक होता है। यदि वह जीव देव है, तो देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रशरीरसंस्थान, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, उच्छास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांचों अन्तराय, इन प्रकृतियोंका वेदक होता है। ऊपर कही गई प्रकृतियों के सिवाय शेष सर्व प्रकृतियोंका अवेदक होता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके जिन प्रकृतियोंका उदय होता है, उन प्रकृतियोंकी स्थितिके क्षयसे उदयमें प्रविष्ट एक स्थितिका वह वेदक होता है । शेष स्थितियोंका अवेदक होता है। उक्त जीवके जिन अप्रशस्त प्रकृतियोंका उदय होता है, उनके निंब और कांजीर रूप द्विस्थानीय अनुभागका वह वेदक होता है। उदयमें आई हुई प्रशस्त प्रकृतियोंके चतुःस्थानीय अनुभागका वेदक होता है। उदयमें आई हुई प्रकृतियोंके अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका वेदक होता है। जिन प्रकृतियोंका वेदक होता है, उनके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी उदीरणा करता है। शंका-उदय और उदीरणामें क्या भेद है ? समाधान-कहते हैं- जो कर्म-स्कन्ध अपकर्षण, उत्कर्षण आदि प्रयोगके विना स्थिति-क्षयको प्राप्त होकर अपना अपना फल देते हैं, उन कर्म-स्कन्धोंकी 'उदय' यह १ प्रतिषु · दुस्सर ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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