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२१०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-८, ४. मंतोकोडाकोडिहिदीए बंधओ। तासु महादंडएसु उत्तअप्पसत्थपयडीणं वेढाणियअणुभागबंधओ। तत्थ उत्तपसत्थपयडीणं चदुट्टाणियअणुभागस्स बंधगों। पंच णाणावरणीयछदंसणावरणीय-सादावेदणीय-वारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछाए तिरिक्खगदिमणुसगदि-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंधरस-फास-तिरिक्खगदि-मणुसगीदपाओग्गाणुपुब्बी अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सासउजोव-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुह-जसकित्ति-णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइयाणमणुक्कस्सपदेसबंधओ । णिहाणिद्दा-पयलापयला-त्थीणगिद्धि-मिच्छत्त-अणंताणुबंधिकोधमाण-माया-लोभ-देवगदि-वेउब्वियसरीर-समचउरस सरीरसंठाण-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण-देवगदिपाओग्गाणुपुची-पसत्थविहायगदि-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-चागोदाणमुक्कस्सपदेसबंधओं वा अणुक्कस्सपदेसबंधओ वा । पंचण्हं णाणावरणीयाणं वेदओ। चवखुदसणावरणीयमचवखुदंसणावरणीयमोहिदसणावरणीय-केवलदसणावरणीयमिदि चदुण्हं दंसणावरणीयाणं वेदगो, णिद्दा-पयलाणं एक्कदरेण सह पंचण्हं वा वेदगो।
कषा
बांधनेवाला हो। तीनों महादंडकोंमें उक्त अप्रशस्त प्रकृतियोंके द्विस्थानीय अनुभागका बांधनेवाला हो। उन्हीं तीनों महादंडकोंमें उक्त प्रशस्त प्रकृतियोंके चतुःस्थानीय अनुभागका बांधनेवाला हो। पांच ज्ञानावरणीय, स्त्यानगृद्धि आदि तीन प्रकृतियोंको छोड़कर शेष छह दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, अनन्तानुबन्धी-चतुष्कको छोड़कर शेष बारह हाय, पूरुषवेद, हास्य, रति, भय, जगुप्सा, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर-अंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छास, उद्योत, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, यश-कीर्ति, निर्माण, उञ्चगोत्र और पांचों अन्तराय, इन प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबंधवाला हो । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, देवगति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रशरीरसंस्थान, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, वज्रऋषभसंहनन, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और नींचगोत्र, इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला हो, अथवा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला हो। पांचों शानावरणीय प्रकृतियोंका वेदक, अर्थात् उदयवाला हो। चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय, इन चार दर्शनावरणीय प्रकृतियोंका वेदक हो, अथवा निद्रा और प्रचला, इन दोनों से किसी एकके साथ पांच दर्शनावरणीय प्रकृतियोंका वेदक हो। सातावेदनीय और
१ सत्थाणमसत्थाणं चउविट्ठाणं रसं च बंधदि हु। पडिसमयमणतेण य गुणभजियकमं तु रसबंधे ॥ लन्धि. ३८.
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