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________________ १, ९-८, ४.] चूलियाए सम्मनुप्पत्तीए अधापवत्तकरणं [२०९ असुभ-दुभग दुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्ति-णीचागोद-पंचंतराइयाणं विद्याणियअणुभागसंतकम्मिगो, एदासिमप्पसत्थपयडीणमणुभागस्स ति-चदुट्ठाणाणं विसोहीए घादसंभवादो। सादावेदणीय-मणुसगदि-देवगदि-पंचिंदियजादि ओरालिय-उब्धिय-तेजा-कम्मइयसरीर तेसिं चेव बंधण-संघाद समचउरससंठाण-ओरालिय-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-वजरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण-पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगदि-देवगदिपाओग्गाणुपुव्वी-अगुरुगलहुग-परघादुस्सास-आदाउज्जोव-पसत्थविहायगदि-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिण-उच्चागोदाणं चदुट्ठाणाणुभागसंतकम्मिओ । कुदो ? एदासिं पसत्थपयडीणं विसोधीदो अणुभागस्स घादाभावा, समयं पडि विसोहिवड्डीदो अणंतगुणकमेण एदासिमणुभागबंधस्स वड्डिदंसणादो च । ___ जासिं पयडीणं संतकम्ममत्थि, तासिमजहण्णअणुक्कस्सपदेससंतकम्मिगो । तीसु महादंडएसु उत्तपयडीणं बंधओं, अवसेसाणमबंधओ। तीसु महादंडगेसु उत्तपयडीण दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, नीचगोत्र और पांचों अन्तराय, इन प्रकृतियों के द्विस्थानीय, अर्थात् नीम और कांजीर, इन दो स्थानरूप अनुभागकी सत्तावाला हो, क्योंकि, इन अप्रशस्त प्रकृतियोंके त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागका विशुद्धिके द्वारा घात संभव है। सातावेदनीय, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, इन्हीं चारों शरीरोंके चार बन्धननामकर्म, चार संघातनामकर्म, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीर-अंगोपांग, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीति, निर्माण और उच्चगोत्र, इन प्रकृतियोंके चतु:स्थानीय, अर्थात् गुड़, खांड, शक्कर और अमृत, इन चार स्थानरूप अनुभागकी सत्तावाला हो, क्योंकि, इन प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागका विशुद्धिसे घात नहीं होता है, किन्तु प्रतिसमय विशुद्धिके बढ़नेसे अनन्तगुणित क्रमद्वारा इन उपर्युक्त प्रकृतियोंके अनुभागबन्धकी वृद्धि देसी जाती है। जिन प्रकृतियोंका उसके सत्त्व है, उनके अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशकी सत्तावाला हो। तीनों महादंडकोंमें कही गई प्रकृतियोंका बांधनेवाला हो, उनसे अवशिष्ट प्रकृतियोंका बांधनेवाला न हो। तीनों महादंडकोंमें उक्त प्रकृतियोंकी अन्ताकोड़ाकोड़ी स्थितिका १ प्रतिषु 'चट्ठाणिय' इति पाठः। २ एदेहिं विहीणाणं तिणि महादंडएसु उत्ताणं । एकढिपमाणाणमणुक्कस्सपदेसबंधणं कुणइ लब्धि.२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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