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__ अहमी चूलिया एवदिकालद्विदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं ण लहदि ॥ १॥
एदं देसामासियसुत्तं, तेण एदेसु कम्मेसु जहण्णढिदिवंधे उक्कस्सट्ठिदिबंधे जहण्णुक्कस्सटिदिसंतकम्मेसु जहण्णुक्कस्सअणुभागसंतकम्मेसु जहण्णुक्कस्सपदेससंतकम्मेसु च संतेसु सम्मत्तं ण पडिवज्जदि त्ति घेत्तव्यं ।
लभदि त्ति विभासा ॥२॥
जे पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसे बंधतो तेहि पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसेहि संतसस्वेण होतेहि उदीरिज्जमाणेहि सम्मत्तं पडिवज्जदि तेसिं परूषणा कीरदि त्ति पइज्जासुत्तमेयं ।
एदेसिं चेव सव्वकम्माणं जावे अंतोकोडाकोडिद्विदिं बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लभदि ॥ ३॥ ___इतने कालप्रमाण स्थितिवाले कर्मोंके द्वारा जीव सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त करता है ॥१॥
यह देशामर्शक सूत्र है, इसलिए इन (पूर्व दो चूलिकाओंमें उक्त) कर्मोके जघन्य स्थितिबन्ध होनेपर, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म अर्थात् स्थिातसत्त्व होनेपर, जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व होनेपर, तथा जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व होनेपर जीव सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त करता है, यह अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
प्रथम चूलिकाका प्रथम सूत्र-पठित 'लभदि' यह जो पद है, उसकी व्याख्या की जाती है ॥२॥
जिन प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंको बांधता हुआ, उन प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके सत्त्वस्वरूप होते हुए, और उदीरणा किये जाते हुए यह जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, उनकी प्ररूपणा की जाती है, इस प्रकार यह प्रतिज्ञा लूत्र है।
इन ही सर्व कर्मोकी जब अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिको बांधता है, तब यह जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥३॥
१ प्रतिषु — एषदिकाले हिदीएहि ' इति पाठः ।
२ उत्कृष्ट स्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । स. सि. २,३. अहवरहिदिबंधे जेट्टवरहिदितियाण ससे यण य पडिवज्जदि पदमुवसमसम्म मिच्छजीवो हु ॥ लब्धि. ८.
३ प्रतिषु 'बेहि ' इति पाठः ।
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