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________________ २०४] छक्खडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-८, ३. ___ पढमसम्मत्तलंभजोग्गो जीवो जेण उवयारेण पढमसम्मत्तं लम्भदि त्ति परूविदो। अत्थदो पुण एत्थ ण लभदि, तिकरणचरिमसमए सम्मत्तुप्पत्तीदो। एदेण खओवसमलद्धी विसोहिलद्धी देसणलद्धी पाओग्गलद्धि त्ति चत्तारि लद्धीओ परूविदाओ। पुव्वसंचिदकम्ममलपडलस्स अणुभागफद्दयाणि जदा विसोहीए पडिसमयमणंतगुणहीणाणि होदूणुदीरिज्जति तदा खओवसमलद्धी होदि। पडिसमयमणंतगुणहीणकमेण उदीरिदअणुभागफद्दयजणिदजीवपरिणामो सादादिसुहकम्मबंधणिमित्तो असादादिअसुहकम्मबंधविरुद्धो विसोही णाम । तिस्से उवलंभो विसोहिलद्धी णाम । छद्दव्य-णवपदत्थोवदेसो देसणा णाम | तीए देसणाए परिणदआइरियादीणमुवलंभो, देसिदत्थस्स गहण-धारणविचारणसत्तीए समागमो अ देसणलद्धी णाम। सबकम्माणमुक्कस्सद्विदिमुक्कस्साणुभागं च घादिय अंतोकोडाकोडीहिदिम्हि वेढाणाणुभागे च अवट्ठाणं पाओग्गलद्धी णाम। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके प्राप्त करने योग्य जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है, यह बात उपचारसे प्ररूपण की गई है। परन्तु यथार्थसे यहांपर, अर्थात् उक्त प्रकारकी कर्मस्थिति होनेपर, नहीं प्राप्त करता है, क्योंकि, त्रिकरण, अर्थात् अधःकरण भपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है। इस सूत्रके द्वारा क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्रायोग्यलब्धि, ये चारों लब्धियां प्ररूपण की गई है । पूर्व संचित कौके मलरूप पटलके अनुभागस्पर्धक जिस समय विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुणहीन होते हुए उदीरणाको प्राप्त किये जाते हैं, उस समय क्षयोपशमलब्धि होती है । प्रतिसमय अनन्तगुणित हीन क्रमसे उदीरित अनुभागस्पर्धकोंसे उत्पन्न हुआ, साता आदि शुभ कौके बन्धका निमित्तभूत और असाता आदि अशुभ कर्मों के बंधका विरोधी जो जीवका परिणाम है, उसे विशुद्धि कहते हैं। उसकी प्राप्तिका नाम विशुद्धिलब्धि है । छह द्रव्यों और नौ पदार्थोके उपदेशका नाम देशना है । उस देशनासे परिणत आचार्य आदिकी उपलब्धिको और उपदिष्ट अर्थके ग्रहण, धारण तथा विचारणकी शक्तिके समागमको देशनालब्धि कहते हैं। सर्व कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागको घात करके अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिमें, और द्विःस्थानीय अनुभागमें अवस्थान करनेको प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। १ कम्ममलपडलसत्ती पडिसमयमणंतगुणविहीणकमा । होदूशुदीरदि जदा तदा खओवसमलद्धी दु ॥ लब्धि. ४. २ आदिमलद्विभवो जो भावो जीवस्स सादपहुदीणं । सत्थाणं पयडीणं बंधणजोगो विसुद्धलद्धी सो॥ लब्धि . ५. ३ छद्दव्वणवपयत्थोवदेसयरसूरिपहुदिलाही जो । देसिदपदत्थधारणलाहो वा तदियलद्धी दु॥ लन्धि. ६, ४ अंतोकोडाकोडी विठ्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं । पाउग्गलद्धिणामा भवाभवेमु सामण्णा ॥ लब्धि.७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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