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________________ १, ९-७, ४३.] चूलियाए जहण्णद्विदीए अणुभाग-पदेसबंधविहाणं विदिबंधेसु अणुभाग-पदेसाविणाभावेसु परूविदेसु तप्परूवणासिद्धीदो। तं जहा- सण्णिपंचिंदियधुवट्ठिदिं अंतोकोडाकोडिं सग-सगकम्मपडिभाइयमप्पप्पणो उक्कस्सट्ठिदिम्हि सोहिदे द्विदिबंधट्ठाणविसेसो होदि । तत्थ एगरूवं पक्खित्ते हिदिबंधट्ठाणाणि हवंति । एकेक्कस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणस्स असंखेज्जा लोगा ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि जहाकमेण विसेसाहियाणि । विसेसो पुण असंखेज्जा लोगा। तेसिं पडिभागो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो एदेसिमत्थित्तं णव्वदे ? जहष्णुक्कस्सहिदीहिंतो सिद्धढिदिबंधट्ठाणण्णहाणुववत्तीदो। ण च कारणमंतरेण कज्जस्सुप्पत्ती कहिं पि होदि, अणवट्ठाणादो । ताणि च द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि जहण्णट्ठाणादो जावप्पप्पणो उक्कस्सट्टाणं ताव अणंतभागवड्डी असंखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागवड्डी संखेज्जगुणवड्डी असंखेज्जगुणबड्डी अणंतगुणवड्डी त्ति छविधाए बड्डीए द्विदाणि । अणतभागवडिकंडयं गंतूण एगा असंखेज्जभागवड्डी होदि । असंखेज्जभागवड्डिकंडयं गंतूण एगा संखेज्जभागवड्डी होदि। बन्ध और स्थितिबन्धके प्ररूपण किये जानेपर उनकी प्ररूपणा स्वतः सिद्ध है। वह इस प्रकार है- अपने अपने कर्मके प्रतिभागीरूप अन्तःकोड़ाकोडीप्रमाण संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंकी धुवस्थितिको अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेसे घटानेपर स्थितिवन्धका स्थानविशेष होता है । उसमें एक रूप और मिलानेपर स्थितिबन्धके स्थान हो जाते हैं । एक एक स्थितिबन्धस्थानके असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान होते है, जो कि यथाक्रमसे विशेष विशेष अधिक हैं। इस विशेषका प्रमाण असंख्यात लोक है। उनका प्रतिभाग पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। शंका-इन स्थितिवन्धाध्यवसायस्थानोंका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? समाधान-जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियोंसे प्राप्त या सिद्ध होनेवाले स्थितिबन्धस्थानोंकी अन्यथानुपपत्तिसे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंका अस्तित्व जाना जाता है । कारणके विना कार्यकी उत्पत्ति कहीं पर भी होती नहीं है, क्योंकि, यदि ऐसा न माना जाय तो अनवस्थादोष प्राप्त होगा। वे स्थितिबन्धाध्यव्यवसायस्थान जघन्य स्थानसे लेकर अपने अपने उत्कृष्ट स्थान तक अनन्तभागवृद्धि; असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि, इस छह प्रकारकी वृद्धिसे अवस्थित हैं। अनन्तभागवृद्धिकांडक जाकर, अर्थात् सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र वार अनन्तभागवृद्धि हो जानेपर, एक वार असंख्यातभागवृद्धि होती हैं। असंख्यातभागवृद्धि कांडक जाकर एक वार संख्यातभागवृद्धि होती है । संख्यातभागवृद्धिकांडक जाकर ..................... १ अवरहिदिबंधझवसाणट्टाणा असंखलोगमिदा। अहियकमा उक्कस्सद्विदिपरिणामो ति णियमेण ॥ गो. क. ९४७. २ कांडकं अंगुलासंख्यातभागमात्रवारः । गो. जी., म. प्र. टी. ३२९. कांडकं च समयपरिभाषयाङ्गुलमात्रक्षेत्रासंख्येयभागगताकाशप्रदेशराशिसंख्याप्रमाणमभिधीयते । कर्मप्र. पृ. ९०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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