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________________ २०० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९-७, ४३. संखेज्जभागवड्डिकंडयं गंतूण एगा संखेज्जगुणवड्डी होदि । संखेज्जगुणवड्डिकंडयं गंतूण एगा असंखेज्जगुणवड्डी होदि । असंखेज्जगुणवड्डिकंडयं गंतूण एगा अनंतगुणवड्डी होदि । एदमेगं छट्ठाणं । एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि होति' । सव्वट्ठिदिबंधट्ठाणाणं एकेक्कट्ठदिबंधज्झवसाणहाणस्स हेट्ठा छवड्डिकमेण असंखेज्जलोगमेत्ताणि अणुभागबंध ज्झवसाणट्ठाणाणि होति । ताणि च जहण्णकसाउदयअणुभागबंधज्झवसाण पहुड उवरिं जाव जहणट्ठिदि उक्कस्सकसा उदयट्ठाणअणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि ति विसेसाहियाणि । विसेसो पुण असंखेज्जा लोगा । तस्स पडिभागो वि असंखेज्जा लोगा । एदेसिमत्थित्तं कुदो णव्वदे ? कसायउदयद्वाणादो अणुभागेण विणा अलप्पसरूवादो । तदो सिद्धा पयडि-ट्ठिदिबंधादो अणुभागबंधस्स सिद्धी । कथं पदेस बंधस्स तदो सिद्धी १ उच्चदे- ठिदिबंधे णिसेयविरयणा परुविदा | एक वार संख्यातगुणवृद्धि होती है। संख्यातगुणवृद्धिकांडक जाकर एक वार असंख्यातगुणवृद्धि होती है । असंख्यातगुणवृद्धिकांडक जाकर एक वार अनन्तगुणवृद्धि होती है । ( यहां सर्वत्र कांडकसे अभिप्राय सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र वारोंसे है । ) यह एक षड्वृद्धिरूप स्थान है । इस प्रकारके असंख्यात लोकमात्र षड्वृद्धिरूप स्थान उन स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंके होते हैं । सर्व स्थितिबंधों सम्बन्धी एक एक स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानके नीचे उपर्युक्त षड्वृद्धिके क्रमसे असंख्यात लोकमात्र अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं । वे अनुभागबंधाध्यवसायस्थान जघन्य कषायोदय सम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान से लेकर ऊपर जघन्यस्थितिके उत्कृष्ट कषायोदयस्थानसम्बन्धी अनुभागवन्धाध्यवसायस्थान तक विशेष विशेष अधिक हैं। यहांपर विशेषका प्रमाण असंख्यात लोक है । तथा उसका प्रतिभाग भी असंख्यात लोक है। शंका - इन अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानोंका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? समाधान - अनुभागके विना जिनका आत्मस्वरूप प्राप्त नहीं हो सकता है, ऐसे कषायोंके उदयस्थानोंसे अनुभागवन्धाध्यवसायस्थानोंका अस्तित्व जाना जाता है । इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि प्रकृतिबन्ध और स्थितिबन्धसे अनुभागबन्धकी सिद्धि होती है | शंका - प्रकृतिवन्ध और स्थितिबन्धसे प्रदेशबन्धकी सिद्धि कैसे होती है ? समाधान - कहते हैं— स्थितिबन्धमें निषेकोंकी रचना प्ररूपण की गई है । १ लोगाणमसंखपमा जहणउड्डिम्म तम्हि छट्ठागा । हिदिबंधझव साट्टाणाणं होंति सतहं || गो. क. ९५२. २ अणुभागाण बंधझवसाणमसंखला गगुणिदमदो ॥ गो. क्र. २६०. ३ थोवाणि कसाउदये अज्झवसाणाणि सव्वडहरम्मि । बिइयाइ विसेसहियाणि जाव उक्कोसगं ठाणं ॥ ५३॥ कर्मप्र. पू. ११८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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