________________
१९८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
अंतोमुहुत्तमाबाधा ॥ ३९ ॥ आबाघूर्णिया कम्मदी कम्मणिसेओ ॥ ४० ॥
दाणि दो वित्ताणि सुगमाणि ।
जसगित्ति- उच्चागोदाणं जहण्णगो द्विदिबंधो अट्ट मुहुत्ताणि
11 83 11
कुदो ? चरिमसमयसकसायबंधादो ।
अंतोमुहुत्तमाबाधा ॥ ४२ ॥
आबाधूर्णिया कम्मट्टी कम्मणि ॥ ४३ ॥
दाणि दो वि सुगमाणि ।
एत्थ जहष्णुक्कस्सपदेसबंधो अणुभागबंधो च किष्ण परुविदो १ ण, पयडिआहारकशरीर, आहारक अंगोपांग और तीर्थकर नामकर्मका जघन्य आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है ।। ३९॥
उक्त कर्मों के आबाधाकाल से हीन कर्मस्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥ ४० ॥
यह दोनों ही सूत्र सुगम हैं ।
यशःकीर्ति और उच्चगोत्र, इन दोनों कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त
है ॥ ४१ ॥
[ १, ९–७, ३९.
क्योंकि, चरम समयवतीं सकषायी जीवके इन दोनों कर्मोंका बन्ध होता है । यशःकीर्ति और उच्चगोत्र, इन दोनों कर्मोंका जघन्य आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त
है ॥ ४२ ॥
उक्त कर्मों के आबाधाकालसे हीन कर्मस्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥ ४३ ॥
ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं ।
शंका- यहांपर, अर्थात् जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहते समय या उनके पश्चात्, जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध तथा अनुभागबन्ध क्यों नहीं प्ररूपण किया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अनुभागबन्ध और प्रदेशवन्धके अविनाभावी प्रकृति
१ नामगोत्रयोरष्टौ ॥ त. सू. ८, १९.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org