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१, ९-७, ३८.] चूलियाए जहण्णविदोए आहारसरीरादीणि
[१९७ ___ एइंदिएसु वीचारहाणाणि पलिदोवमरस असंखेज्जदिभागो, आवाधाट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागो। बीइंदियादिसु वीचारहाणाणि पलिदोवमरस संखेज्जदिभागो, आबाधाठाणाणि आवलियाए संखेज्जदिभागो। वेउब्बियछक्कं च णामकम्म, तेण सागरोवमसहस्सवेसत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणा तस्स जहण्णद्विदिबंधो होदि।
अंतोमुहुत्तमाबाधा ॥ ३६॥ आवाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो ॥ ३७॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
आहारसरीर-आहारसरीरअंगोवंग-तित्थयरणामाणं जहण्णगो द्विदिबंधो अंतोकोडाकोडीओ ॥ ३८ ॥
कुदो ? अपुब्धकरणचरिमसमयादो सत्तमभागमोदिण्णस्स अपुवकरणखवगस्स बंधादो।
एकेन्द्रिय जीवोंमें वीचारस्थान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं, और आबाधास्थान आवलीके असंख्यातवें भाग है । द्वीन्द्रियादि जीवोंमें वीचारस्थान पल्योपमके संख्यातवें भाग हैं, और आवाधास्थान आवलीके संख्यातवें भाग हैं । वैक्रियिकषटू, अर्थात् नरकगति आदि सूत्रोक्त छहों प्रकृतियां नामकर्मकी हैं, इसलिए पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन सागरोपमसहस्रके दो बटे सात भाग (२७°°) उस वैक्रियिकपद का जघन्य स्थितिबन्ध होता है।
___ पूर्व सूत्रोक्त नरकगति आदि छहों प्रकृतियोंका जघन्य आवाधाकाल अन्तमुहूर्त है ॥ ३६॥
- उक्त प्रकृतियोंके आवाधाकालसे हीन कर्मस्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥ ३७ ॥
ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं।
आहारकशरीर, आहारकशरीर अंगोपांग और तीर्थकर नामकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम है ॥३८॥
क्योंकि, अपूर्वकरणके चरम समयसे लेकर सप्तम भाग तक उतरे हुए अपूर्वकरण क्षपकके इन तीनों प्रकृतियोंका बन्ध होता है।
१ तित्थाहार णंतोकोडाकोडी जहण्णठिदिबंधो। खवगे सगसगबंधच्छेदणकाले हवे णियमा.गो.क. १४१.
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